औरंगजेब से हार कर भी जीत गए संभाजी महाराज – जानिए कैसे

हम भारतीयों का इतिहास हमेशा से ही बहुत गौरवशाली रहा है, लेकिन देश के इतिहास में कई ऐसे भी मोड़ आए जिसने दशा-दिशा बदल कर रख दी। इसलिए कभी कभी हम सोचते है काश ऐसा ना हुआ होता, तो कितना अच्छा होता। लेकिन इतिहास में जो हुआ वो होना ही था। जिसकी वजह से देश के सीने में कई आघात लगे। मशहूर मराठी लेखक विश्वास पाटिल के उपन्यास "संभाजी" की इसी नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित कृत्य अपने पाठकों से यही उम्मीद करती है।

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संभाजी युवा राजा दूसरे मराठा छत्रपति, जिन्होंने अपने पिता महान शिवाजी महाराज के बाद सिंहासन पर विजय प्राप्त की, लगातार आठ वर्षों तक मुगलों से लड़ते रहे। लेकिन एक बार भी नहीं मरे। उन्होंने खुद की पेशकश की, लेकिन मुगल सम्राट के सामने नहीं झुके, बहुत कम उम्र में एक नायक की मृत्यु हो गई, जब वह केवल 32 वर्ष के थे। पिछले 325 वर्षों से संभाजी को अक्सर काले रंग में रंगा जाता था। वह एक काव्यात्मक दिमाग था। वह बहुत ही बुद्धिमान व्यक्ति थे। वह अपने लोगों के बारे में चिंतित थे, वह बहादुर थे। वह एक महान विचारक थे। उनके सभी अच्छे गुणों को देखा गया था। लेकिन उनके व्यक्तित्व को हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता था।

विश्वास पाटिल, आज के सबसे प्रतिभाशाली लेखक, हमें संभाजी राजे के बारे में अधिक बताते हैं, जैसा कि उन्होंने उन्हें इतिहास के संदर्भों के माध्यम से देखा है, क्योंकि उन्होंने उन्हें बहुत मूल्यवान में पाया है, लेकिन दस्तावेजों के रूप में अनदेखा किया गया है। अरब सागर की खाड़ियों के बीच सह्याद्री पर्वत श्रृंखलाएं। संभाजी, शिवाजी महाराज के पुत्र, उनकी समान रूप से प्रभावशाली, सांस लेने वाली, शानदार, तूफानी कहानी के साथ एक उपन्यास व्यक्तित्व।

इस उपन्यास में पुत्र प्रेम में वशीभूत होकर छत्रपति शिवाजी महाराज के देश में हिंदवी स्वराज स्थापित करने के सपने को पलीता लगाने पर आमादा सोयराबाई हैं। वे अपने बेटे राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं, जबकि खुद छत्रपति अपनी पहली पत्नी साइबाई से जन्मे बेटे संभाजी को युवराज घोषित कर चुके हैं और उन्हें अपनी गद्दी सौंपने की योजना बना रहे हैं। वे हर लिहाज से इसके योग्य हैं लेकिन सोयराबाई को यह कतई स्वीकार नहीं है और वे शिवाजी के मंत्रियों के साथ मिलकर संभाजी के खिलाफ षड़यंत्र रचती हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा कैसे एक बड़े उद्देश्य की राह में रोड़ा बन सकती है, लेखक ने इसका बखूबी वर्णन किया है।

इसमें संभाजी हैं, जो सारे षड़यंत्रों से लड़ते हुए आखिरकार मराठा साम्राज्य पर काबिज होने सफल हो जाते हैं, लेकिन शिवाजी की मृत्यु के बाद उत्साहित मुगल बादशाह औरंगजेब को लगता है कि मराठों को हराने का इससे बढ़िया मौका नहीं मिलेगा। वह अपने हजारों सैनिकों के साथ दक्षिण की ओर कूच करता है, लेकिन लगातार आठ साल तक लड़ने के बावजूद वह मराठों के गौरव रायगढ़ सहित उनके सैकड़ों किलों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। इससे वह इतना ज्यादा निराश होता है कि मराठों को घुटने टेकने पर मजबूर करने तक अपने सिर के ताज को त्यागने का प्रण ले लेता है।

इतिहास के इस मोड़ पर फिर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा उठाती है। संभाजी से नाराज उनका साला गनोजी शिर्के सामने आता है और विभीषण की भूमिका निभाते हुए धोखे से अपने जीजा को मुगलों के हवाले कर देता हैं। उन्हें बंधक बनाकर औरंगजेब के सामने पेश किया जाता है। उन्हें कई दिन तक अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं। लोहे की गर्म सलाखें घोपकर उनकी आंखें तक निकाल ली जाती हैं, लेकिन वे मुगलों के सामने घुटने नहीं टेकते हैं। अपनी जान और राजपाट बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार नहीं करते हैं और धर्म एवं राष्ट्र की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दे देते हैं।

औरंगजेब पिछले आठ साल से इस दिन का इंतजार कर रहा है, लेकिन संभाजी और मराठों को हराने के बाद भी उसके चेहरे पर इसकी खुशी नजर नहीं आ रही है क्योंकि उसे दुख है कि काश उसका भी संभाजी जैसा एक बेटा होता तो वह कुरआन और तसबीह लेकर मक्का-मदीना में बस जाता। उसे अफसोस है कि उसके चारो शाहजादे किसी काम के नहीं हैं। इस तरह औरंगजेब जीत कर भी हार गया और संभाजी हारकर भी अमर हो गए।

पुस्तक का नाम : संभाजी
लेखक : विश्वास पाटिल
प्रकाशक : एका (वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड)
मूल्य : 899 रुपये

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