महाराष्ट्र और बिहार के बाद अब पंजाब में भी सियासी माहौल पूरी तरह से गर्मा गया है। कृषि बिल के विरोध को लेकर भाजपा के साथ पिछले 24 साल से गठबंधन में रहे शिरोमणि अकाली दल ने एनडीए से नाता तोड़ दिया है। शिरोमणि अकाली दल के इस निर्णय के पीछे का कारण पूरी तरह से कृषि विधेयक ही है। अकाली दल की ओर से भी इस फैसले के पीछे की वजह कृषि बिल को लेकर नाराजगी ही बताई गई है। इस बात के कयास पहले ही लगाए जा रहे थे कि शिरोमणि अकाली दल कृषि बिल को लेकर भाजपा से नाराज है लेकिन इस बात की भनक शायद NDA को भी नहीं थी कि उनकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी अचानक उनका साथ छोड़ देगी। एनडीए के लिए पंजाब में यह सबसे बड़ा झटका साबित हो सकता है।
बता दें कि कुछ ही समय पहले कृषि बिल से नाराज होकर ही हरसिमरन कौर ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया था। जिसके बाद अब बिल के विरोध में अकाली दल ने एनडीए से अपना 24 साल पुराना नाता तोड़ दिया है। इस बात का ऐलान खुद अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने किया। एनडीए का साथ छोड़ने के बाद शिरोमणि अकाली दल के इस फैसले पर कई तरह के सवाल खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन एक बात तय है कि आने वाले समय में पंजाब की राजनीति में कई तरह के भूचाल आने की सम्भावना है।
एनडीए के लिए सबसे बड़ा सहयोगी दल था अकाली दल
एनडीए और अकाली दल की दोस्ती किसी से छिपी नहीं है। दोनों ने 1996 में पहली बार एक साथ आने का फैसला किया था। तभी से एनडीए और अकाली दल का गठबंधन अटूट रहा है। पंजाब में अकाली दल और भाजपा की दोस्ती में कभी भी दरार नहीं आई। यहां तक की अकाली दल ने भाजपा के लिए नवजोत सिंह सिद्धू से दुश्मनी मोल ली थी और उन्हें पार्टी से जाने दिया था। लेकिन पिछले कुछ सालों से एनडीए और अकाली दल में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था। दोनों ही पार्टी एक दूसरे से अलग होकर राज्य में अपनी धाक जमाना चाहती थी। जिसके बाद अकाली दल को कृषि विधेयक के जरिए एनडीए से अलग होने का रास्ता मिल गया। यहीं से अकाली दल अब अपनी आगे की राजनीति शुरू करेगी।
क्या अपनी जमीन अलग तलाश रहा है अकाली दल?
NDA से नाता तोड़ने के बाद अकाली दल पर कई तरह के सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं। अकाली दल के इस फैसले से ऐसा लग रहा है जैसे उन्होंने पंजाब में अपनी अलग जमीन तलाशनी शुरू कर दी हो। शिरोमणि अकाली दल पहले ही NDA से अलग होने का मौका ढूंढ रहा था। कृषि सुधार से जुड़े विधेयकों के चलते पंजाब में इसका व्यापक और जोरदार विरोध हो रहा है। ऐसे में अकाली दल के लिए अपने जनाधार को बचाने का इससे बेहतरीन मौका शायद ही कभी होता। 2022 के चुनाव में अकाली दल के लिए ये बड़ा मुद्दा साबित हो सकता है। किसान आंदोलन की आड़ में NDA से नाता तोड़ने के बाद अकाली दल ने पंजाब की राजनीति में एक नए सियासी जंग की शुरुआत कर दी है।
दूसरी शिवसेना बनने के लिए तैयार अकाली दल?
पंजाब की सियासी तस्वीर भी कुछ महाराष्ट्र की तरह हो चली है। जहाँ शिवसेना ने राजनैतिक स्वार्थ के लिए अपने सबसे बड़े सहयोगी दल भाजपा से नाता तोड़ कांग्रेस एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई और मुख्यमंत्री पद की दावेदारी हासिल की थी। ऐसे में शिरोमणि अकाली दल को लेकर भी इसी तरह के सवाल खड़े हो रहें हैं कि क्या अकाली दल दूसरी शिवसेना बनने के लिए कोशिश कर रहा है? दूसरी तरफ अकाली दल के इस फैसले का शिवसेना ने तुरंत ही स्वागत कर दिया। जिससे साफ होता है कि इसके पीछे शिवसेना और NCP की भागेदारी भी हो सकती है। अकाली दल शिवसेना और तेलुगु देशम पार्टी के बाद एनडीए से बाहर निकलने वाला तीसरा प्रमुख सदस्य है। पंजाब में सिख वोट बैंक बंटकर वोट करता है। जिसे देखते हुए शिरोमणि अकाली दल अकेले कभी चुनाव लड़ने के बारे में नहीं सोचेगा। ऐसे में महाराष्ट्र में शिवसेना की तरह अकाली दल भी CM के फार्मूले पर कांग्रेस से गठबंधन कर सकता है।
बिहार में भी हो सकती है खींचातान
पहले शिवसेना और अब अकाली दल का एनडीए से अलग होने का सीधा असर बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। 1 साल में 2 सबसे बड़ी पार्टी एनडीए से अलग हो चुकी हैं। इसके बाद नीतीश कुमार बिहार में एनडीए से सीटों के बंटवारे को लेकर अच्छी खासी सौदेबाजी कर सकते हैं। इसके अलावा राम विलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी भाजपा पर दबाव बढ़ाएगी कि उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें दी जाएं। भाजपा को भी अपना किला बचाने के लिए हर हाल में गठबंधन की मांगों को स्वीकार करना पड़ेगा। जिसके बाद साफ है कि अकाली दल का यह फैसला बिहार में भाजपा की परेशानी का सबब बन सकता है।
क्या होगी भाजपा की आगे की रणनीति?
पहले शिवसेना और अब अकाली दल ने NDA से अलग होकर भाजपा की चिंता को थोड़ा जरूर बढ़ा दिया है। क्योंकि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक साथ दो बड़ी पार्टी का भाजपा से अलग होना पार्टी की नींव को हिला सकता है। पार्टी की हर एक चट्टान मजबूत होनी चाहिए और बात जब राज्य की 2 सबसे बड़ी पार्टियों की हो तो ये और महत्वपूर्ण हो जाता है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और पार्टी की आला कमान भी इस बात को अच्छे से जानते हैं। यही कारण है कि पार्टी की प्रभुद्धता और अखंडता को बचाए रखने के लिए अकाली दल से आगे भाजपा बातचीत का सिलसिला भी शुरू कर सकती है।