एग्जिट पोल के मुताबिक बिहार की जनता तेजस्वी के साथ, एनडीए क्यों रह गयी पीछे?

एग्जिट पोल के आंकड़ो पर नजर डालें तो बिहार में नीतीश कुमार यानी कि एनडीए के सूपड़ा साफ होता दिख रहा है। ऐसे में यहाँ पर बड़ा सवाल ये है कि आखिर एनडीए से चूक कहाँ पर हुई? बिहार में सुशासन के प्रतीक नीतीश कुमार के हाथ से सत्ता की कुर्सी क्यों दूर जाती दिख रही है।

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बिहार विधानसभा चुनाव में तीसरे चरण की वोटिंग संपन्न होने के बाद अब सभी की निगाहें चुनाव के नतीजों पर है। चुनाव का नतीजा 10 नवंबर को सामने आएगा। लेकिन चुनावी पंडितों ने एग्जिट पोल का ऐलान कर दिया है। अब तक सामने आए सभी एग्जिट पोल्स में बिहार की जनता को लालू के लाल तेजस्वी यादव की “लालटेन” ही जलती दिख रही है। बिहार की जनता ने इस बार नीतीश कुमार के सुशासन को नकारते हुए तेजस्वी यादव के रोजगार वाली गाड़ी पर बैठना ज्यादा पसन्द किया है।

अभी तक अधिकतर एग्जिट पोल का तो यही मानना है कि बिहार में अब फिर से लालटेन के उजाले में विकास होने वाला है। लेकिन अभी इस बात को पूरी तरह से सच नहीं माना जा सकता है क्योंकि कुछ एग्जिट पोल्स के मुताबिक बिहार में एनडीए को 120 से 127 सीटें मिलने का भी दावा ठोका जा रहा है।

एग्जिट पोल के दावे

बिहार चुनाव पर हुए एग्जिट पोल्स ने एनडीए के मुकाबले महागठबंधन को मजबूत बताया है। टाइम्स नाउ-सी वोटर ने एनडीए को 116, टुडेज चाणक्या ने एनडीए के खाते में 44-56 सीट जाने का अनुमान लगाया है। जबकि, रिपब्लिक-जन की बात ने 91 से लेकर 117, एवीपी-सीवोटर ने 104 से लेकर 128 और टीवी9 भारतवर्ष ने 110 से 120 सीटों की बात कही है। वहीं इंडिया टुडे-एक्सिस-माय-इंडिया के एग्जिट पोल के मुताबिक, बिहार में महागठबंधन को 139 से 161 तक सीटें मिल सकती हैं। जबकि अनुमान के मुताबिक एनडीए 100 से भी कम सीटों पर सिमट सकता है। इसका मतलब अब बिहार में नीतीश कुमार की कुर्सी जाती दिख रही है। एग्जिट पोल के अनुसार, इस बार एनडीए सिर्फ 69 से 91 सीटों के बीच में सिमट सकती है।

कई बड़े एग्जिट पोल्स में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के खाते में 7 से 10 सीटे जाने का अनुमान है। अगर लोजपा चुनाव नतीजों में एग्जिट पोल के मुताबिक प्रदर्शन करते हुए 10 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करती है तो ऐसा 15 साल में पहली बार होगा जब लोजपा दहाई के आंकड़े को पार करेगी।

कुल मिलाकर एग्जिट पोल के आंकड़ो पर नजर डालें तो बिहार में नीतीश कुमार यानी कि एनडीए के सूपड़ा साफ होता दिख रहा है। ऐसे में यहाँ पर बड़ा सवाल ये है कि आखिर एनडीए से चूक कहाँ पर हुई? बिहार में सुशासन के प्रतीक नीतीश कुमार के हाथ से सत्ता की कुर्सी क्यों दूर जाती दिख रही है।

रोजगार है बड़ा मुद्दा

बिहार देश का ऐसा राज्य है जहाँ के लोग आपको देश के लगभग सभी राज्यों में जिलास्तर पर काम करते दिखेंगे। इसे देश का “लेबर प्रोवाइडर” कहा जाए तो कहीं से गलत नहीं होगा। बिहारी देश के एक-एक कोने में मौजूद है। पलायन यहाँ की बहुत बड़ी समस्या है। आजादी के बाद से अब तक बिहार में ना जाने कितनी सरकारे बनी हैं, लेकिन बिहार के इस दर्द की दवा कोई नहीं ला सका। कोरोना काल में जब देश भर से लोगो की वापसी अपने घरों की रफ हुई तो भी सबसे ज्यादा दर्द बिहार के मजदूरों और कामगरों ने झेला। हाज़रो मील पैदल चलकर घर पहुँचने के बाद इन्हें अब अपने घर के पास ही रोजगार मिलने की प्यास और ज्यादा बढ़ गई।

बिहारियों की इस प्यास को बुझाने का जिम्मा युवा तेजस्वी यादव ने ना सिर्फ़ समझा है बल्कि इसे मिटाने का संकल्प भी लिया है। कोरोना काल के बाद से ही कहीं ना कही कामगरों और मजदूरों के मन मे केंद्र की मोदी सरकार और सुशासन बाबू के शासन से नाराजगी थी। जहाँ देश में भर में अकस्मात लॉकडाउन लगाने से हाज़रो कामगरों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा, वही अपने गृह राज्य पहुँचने के बाद उन्हें सुशासन बाबू से भी कोई राहत नहीं मिली। उसी समय से ये बाजी नीतीश के हाथों से फिसलनी शुरू हो गयी थी, जिसका परिणाम हमें अब बिहार के चुनाव में देखने को मिल रहा है।

एनडीए का जातीय समीकरण भी हुआ फेल

भाजपा के अंदरूनी पार्टी सूत्रों का मानना है कि बिहार में भाजपा की तरफ़ से पार्टी टिकट वितरण और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से दूरी बनाए रखना एनडीए की हार का मुख्य कारण बन सकता है। लेकिन एनडीए इसमें नाकाम साबित हुई है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पारंपरिक वोट बैंक के मद्देनजर ऊंची जाति के 11 कैंडिडेट को विधानसभा चुनाव में खड़ा किया है। इन 11 में पांच राजपूत, दो ब्राह्मण, दो वैश्य, एक भूमिहार और एक कायस्थ समुदाय से हैं।

नीतीश ने आरजेडी के मुस्लिम-यादव समीकरण को तोड़ने के लिए 29 यादव और मुस्लिम कैंडिडेट मैदान में उतारे थे। उपेंद्र कुशवाहा के गठबंधन को झटका देने के लिए कुर्मी-कुशवाहा और दलित मिला कर 45 उम्मीदवारों को टिकट दिया गया था। सवर्ण समुदाय को लुभाने के लिए 19 सवर्ण और वैश्य समाज के तीन उम्मीदवार उतारे गए। नीतीश कुमार अपने और बीजेपी के परंपरागत वोटर के साथ जातीय समीकरण की मजबूत घेरेबंदी बना चुके थे। लेकिन अब एग्जिट पोल को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि अब बिहार में भी राजनीति का रुख बदल चुका है। वहाँ के वोटरों को जाति के उत्थान के साथ ही रोजगार का भी पहिया चाहिए। प्रदेश की इस नब्ज को तेजस्वी यादव ने सही समझा है। लालू के लाल तेजस्वी ने ना सिर्फ़ जातीय वोटरों को रिझाने में सफलता हासिल की है, बल्कि प्रदेश में रोजगार की लहर दौड़ाने की भी बात कही है। ऐसे में बिहार के वोटरों को युवा तेजस्वी का साथ बहुत पसन्द आता दिख रहा है।

बीजेपी में मची खलबली

ज़्यादातर एग्ज़िट पोल के नतीजों एनडीए गठबंधन के खिलाफ आए हैं ऐसे में बीजेपी में खलबली मची हुई है। कई नेताओं ने इसके लिए टिकट वितरण और खराब रणनीति को जिम्मेदार ठहराया है। वही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए भी ये हार आत्मचिंतन करने की सीख देगी। क्योंकि आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल में भी चुनाव होने हैं। ऐसा में बिहार में मिली नाकामी बीजेपी के लिये पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव में भी बड़ी भूमिका निभा सकती है।

Image Source: Tweeted by @ians_india

8 COMMENTS

    • Thank You for bringing this into our notice. We always appreciate artistic work and give due credit. Though we had given the credit by mentioning the image source earlier, We have removed the photo as of now.

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