नई दिल्ली | कोरोना महामारी को इंसानों में फैलने से रोकने के लिए हमने मॉस्क और ग्लब्स का निर्माण कर लिया। हम इसका जमकर इस्तेमाल भी कर रहे हैं, लेकिन जो ग्लब्स और मॉस्क हमें कोरोना से बचा रहा है वो ही मॉस्क समुद्र के पानी को जहरीला बनाता जा रहा है। हर माह अरबों की संख्या में फेसमॉस्क और ग्लब्स समुद्र में फेंके जा रहे हैं, जो जलीय जंतुओं के लिए जानलेवा हो गए हैं। ओशियन-एशिया संस्था का कहना है कि मेडिकल कचरे से करोड़ों जलीय जीवों की मौत हो सकती है। स्थिति अगर ऐसी ही बनी रही तो फिर वो दिन दूर नहीं जब समुद्र में जाने पर भी लोगों को कोरोना होना शुरू हो जाएगा।
ओशियन-एशिया संस्था ने हांगकांग, तुर्की, फ्रांस और ब्रिटेन के समुद्री तटों में कचरे पर सर्वे किया। तटों से सौ मीटर की दूरी तक कई टन कोविड से जुड़ा मेडिकल कचरा पाया गया। अब जरा सोचिए इस वक्त दुनिया के कुल 215 देश संक्रमण की चपेट में हैं, जहां मॉस्क पहना जा रहा है। एक अनुमान के हिसाब से लोग रोजाना एक से दो मास्क इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में प्रति व्यक्ति रोजाना 2 मॉस्क इस्तेमाल करने के बाद फेंका जाता है। हर साल 13 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में फेंका जाता है। और प्लास्टिक को विघटित होने में 400 से एक हजार साल लगते हैं। इस तरह से सोचिए तो, पिछले 400 सालों से समुद्र में फेंका गया प्लास्टिक आज तक विघटित नही हुआ है।
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अकेले भारत की राजधानी दिल्ली में ही रोजाना 45 टन बायो मेडिकल कचरा पैदा हो रहा है। जबकि 35 टन बायो मेडिकल कचरे का रोज दिल्ली में निस्तारण किया जा रहा है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया का 30 फीसदी कचरा ही सही तरह से निस्तारित हो पा रहा है। बाकी धरती या नदियों, झील और समुद्र में डंप हो रहा है। कोरोना काल में मेडिकल कचरे की मात्रा और ज्यादा बढ़ गयी है। ऐसे में पर्यावरण संस्थानों ने कपड़े का या जल्दी से नष्ट हो जाने वाले मॉस्क को अनिवार्य बनाने की सलाह दी है। जबकि अस्पतालों से निकला कचरा सीधे संयंत्रों में भेजना अनिवार्य होना चाहिए।