राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने नहीं टिक पाएगा विपक्ष का महागठबंधन, नीतीश कुमार की दोबारा होगी ताजपोशी!!

नवंबर के महीने में बिहार विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। सभी पार्टियों ने चुनाव की तैयारी तेज़ कर दी है। इस बार नितीश कुमार की पार्टी जेडीयू और राष्ट्रीय जनतांत्रिक दल (राजग) के साथ चुनाव लड़ने जा रही है। जो महागठबंधन के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है।

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राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने नहीं टिक पाएगा विपक्ष का महागठबंधन, नीतीश कुमार की दोबारा होगी ताजपोशी!!

इस साल अक्टूबर- नवंबर के महीने में बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं। भले ही चुनाव आयोग ने अभी तक बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान ना किया हो लेकिन सभी राजनीतिक पार्टियों ने कुछ महीनों पहले से ही राज्य के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। वर्चुअल रैली के जरिए सभी राजनैतिक पार्टियों ने जनता पर अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी है। इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव हर पार्टी के लिए अहम है। NDA और भाजपा के लिए ये चुनाव पार्टी का अस्तित्व तय करेगा जबकि इसी चुनाव से बिहार में महागठबंधन के भविष्य की तस्वीर साफ होगी।

बिहार विधानसभा चुनाव का बिगुल अभी पूरी तरह से बजा भी नहीं था कि पिछले कुछ दिनों से राजनैतिक दल लगातार समीकरण बैठाने की कवायद में लगे हुए हैं। पिछली बार हुए चुनाव में आमने-सामने खड़े राजनेता इस बार एक साथ चुनावी मैदान में नजर आएंगे जबकि पिछली बार के दोस्त इस बार एक दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग और NDA इस बार एक साथ चुनाव लड़ने जा रहा है। जिसके बाद नितीश कुमार ने महागठबंधन की मुश्किलें एक बार फिर बढ़ा दी हैं।

बिहार में किसका पलड़ा भारी?

बिहार राज्य में लगभग 33 जिले हैं जिन पर करीब 243 सीटों पर इस बार विधानसभा चुनाव होने हैं। बिहार चुनाव में हमेशा से ही जातीय समीकरण ने पार्टी की किस्मत तय की है। इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलने वाला है। बिहार में करीब 6 करोड़ 68 लाख से ज्यादा वोटर्स हैं। 2015 विधानसभा चुनाव में जो जातीय समीकरण देखने को मिला था उसमें 47 प्रतिशत OBC वोट बैंक था। जबकि दलित 20%, मुस्लिम 16.9% और ऊँची जाती का 11 प्रतिशत वोट बैंक रहा था। 2015 में सबसे ज्यादा 80 सीटें आरजेडी को मिली थी जबकि एनडीए को 71 और कांग्रेस को 27 सीटें मिली थी, इसे महागठबंधन का नाम भी दिया गया था। दूसरी तरफ 53 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई थी जबकि एलजेपी 2 सीटें जीत पाने में कामयाब रही थी। लेकिन इस बार नितीश कुमार राजग के साथ चुनाव लड़ने जा रहे हैं। जातीय समीकरण भी नितीश कुमार के पक्ष में हैं। ऐसे में यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि बिहार में इस समय नितीश कुमार और राजग का पलड़ा भारी नजर आ रहा है।

गठबंधन की तस्वीर अभी साफ नहीं

नितीश कुमार और राजग एक साथ चुनाव लड़ने जा रहे हैं यह पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है। किसी भी समय राजग और जेडीयू अपने उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर सकता है लेकिन दूसरी तरफ गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। गठबंधन के लिए यह सबसे बड़ा चिंता का विषय है। कांग्रेस और आरजेडी इस बात को अच्छे से जानते हैं कि इसका सीधा फायदा चुनाव में नितीश कुमार को मिलेगा। फिलहाल मौजूदा स्थिति भी नितीश कुमार के साथ है। कई पहलु ऐसे हैं जो ये दर्शाने के लिए काफी हैं कि इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक दल के आगे महागठबंधन घुटने टेकने पर मजबूर हो जाएगा।

क्या कहते हैं जातीय समीकरण?

बिहार का इतिहास गवाह है कि राज्य के विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण के दम पर ही सरकारें बनी हैं। 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद यादव ने एमवाई(MY) समीकरण यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ के दम पर ही बिहार में 15 साल तक राज किया था। मुस्लिम और यादव आरजेडी के साथ हैं। जबकि लगभग 8 से 9 प्रतिशत आबादी वाले कुर्मी-कोइरी जाति पर नीतीश कुमार के पार्टी का दबदबा है। दूसरी तरफ बिहार में 17 प्रतिशत दलितों की आबादी पर रामविलास पासवान पार्टी एलजेपी का दबदबा है जो राजग और जेडीयू के साथ हैं। वहीं कांग्रेस के कोर वोटर्स अगड़ी जाति के लोग पहले ही भाजपा के साथ हो गए हैं। ब्राह्मणों ने भी बिहार में भाजपा का दामन कुछ हद तक थामने की कोशिश की है। इसके अलावा SC/ST और पिछड़ी जाति के लोग जीतनराम मांझी के साथ बताए जा रहें हैं जो हाल ही में जेडीयू के साथ शामिल हुए थे। कुल मिलाकर जातीय समीकरण का गणित जेडीयू और राजग के साथ जाता दिखाई दे रहा है।

क्या फिर होगी नितीश कुमार की ताजपोशी?

2020 का बिहार विधानसभा चुनाव 2015 से बिलकुल अलग होगा। 2015 में राजग से अलग होकर सरकार बनाने वाले नितीश कुमार अब भाजपा के साथ हैं। बिहार में नरेंद्र मोदी सरकार के 6 साल के कार्यकाल और बिहार में नीतीश कुमार के 15 साल के कार्यकाल में जिस प्रकार विकास के कार्य हुए हैं, उससे बिहार में जाति आधारित राजनीति लगभग खत्म हो गई है। विकास के मुद्दे पर भी महागठबंधन को घेरने के लिए नितीश कुमार के पास कई विकल्प हैं।

दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पहले ही बिहार में सक्रिय हो चुके हैं। नड्डा के अलावा देवेंद्र फडणवीस को बिहार चुनाव का प्रभारी बनाकर भाजपा विपक्ष को पहले ही झटका दे चुकी है। जीतनराम मांझी भी नितीश कुमार के साथ हैं। दूसरी तरफ सुशांत राजपूत की मौत के बाद बिहार की जनता कांग्रेस के रवैये से पहले ही खफा है। महागठबंधन की अंदरूनी कलह भी बिहार की जनता से छिपा नहीं है। ये सभी घटक इस बात की ओर इशारा करने के लिए काफी हैं कि 2020 बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर नितीश कुमार की ताजपोशी होनी तय है।

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