वर्तमान में चारों ओर सरकार के खिलाफ अभियान चलाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्रियों की सभा अराजकता के कारण रद्द की जा रही है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली की सड़कों पर लाखों की संख्या में किसान अपनी समस्या को लेकर उतरे हुए हैं। 1 साल पहले ऐसे ही सर्दी के मौसम में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी की मांगों को लेकर मुस्लिम महिलाओं ने धरना दिया था। यह धरना करीब पांच-छह महीने चला था और कोरोना के आने के कारण कोर्ट के आदेश पर इन्हें हटाया गया। शाहीन बाग के धरने में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, हिंदुत्व और भगवा विरोधी अभियान चलाया गया। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी तथा जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इस आंदोलन में जोर-शोर से भाग लिया था। और यह वही यूनिवर्सिटी का है जहां पर भारत के आत्मसम्मान विवेकानंद की मूर्ति को खंडित किया गया था और वहां पर हिंदू विरोधी तथा विवेकानंद विरोधी नारे लिखे गए थे।
अब समझने की बात यह है कि जो लोग विवेकानंद के विरोधी हैं, जो लोग भारतीय संस्कृति के विरोधी हैं, उनका चेहरा हर एक सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलन में क्यों दिखाई देता है? इसका उत्तर है इसलिए दिखाई देता है क्योंकि वे लोग केवल मोदी को सत्ता से हटाना चाहते हैं इसके अलावा न तो उन्हें कोई समस्या है और ना ही यह कुछ चाहते हैं।
जब किसानों का आंदोलन दिखा हिंदू विरोधी
किसानों का आंदोलन शांतिपूर्ण चल रहा था लेकिन धीरे-धीरे किसानों के साथ जबसे राजनेता जुड़ने लगे तब यह आंदोलन को उग्र होता हुआ दिखाई दे रहा है। कई बार खालिस्तान संबंधी नारे लगाए गए, कहीं भगवा और हिंदुओं को गालियां दी गई है, कहीं बड़ी-बड़ी गाड़ियों से चलने वाले लोगों ने भारत में हिंदुओं के योगदान के बारे में प्रश्न पूछे, कुछ किसान नेताओं ने मंदिरों के खिलाफ उल्टा सीधा कहा और हिसाब करने की बात कही, तो कुछ लोगों ने इंसाफ न मिलने पर खून बहाने की भी धमकी दी।
इस आंदोलन में भी कुछ उग्रवादी छात्रों ने आने की कोशिश की लेकिन किसानों के नेताओं ने उन्हें आने नहीं दिया। सबसे प्रमुख बात है कि टीवी चैनल्स की डिबेट पर जो लोग किसान नेता बनकर उभर रहे हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो कभी राजनीतिक विश्लेषक बन जाते हैं, कभी वे कानून के विश्लेषक बन जाते हैं, कभी वे मजदूर संगठन के मालिक बन जाते हैं, और कभी भी छात्रों के समर्थक बन जाते हैं। इस आंदोलन के एक भाग में दिल्ली दंगों के आरोपियों को रिहा करने की मांग भी की गई।
वहीं दूसरी तरफ लोगों ने आरोप लगाया कि किसान आंदोलन की आड़ में कुछ लोग किसान बनकर वहां बैठे हैं और वे भारत की व्यवस्था को और किसानों के संगठन को फेल करने की कोशिश कर रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स में सामने आया कि मीडिया के कई रिपोर्टर्स के साथ अभद्र व्यवहार किया जा रहा है,मुख्यधारा की मीडिया को परेशान करने की कोशिश की जा रही है। व्यापारियों का लाखों का सामान इस आंदोलन के कारण फंसा पड़ा है, सरकार और किसानों के बीच में एक तीसरा समूह भी है जो दोनों से ज्यादा परेशान है, उसका नाम है मध्यम वर्गीय परिवार।
बुद्धिजीवी उड़ा रहे हैं भारतीय लोकतंत्र की धज्जियां
कुछ ऐसी पत्रकार जो अप्रासंगिक नहीं रहे हैं वह अपनी प्रासंगिकता बचाने के लिए ऐसे आंदोलनों को हवा देते हैं। वहां जाकर अपनी जहरीली भाषा का प्रयोग करते हैं, और लोगों को राष्ट्र के प्रति तथा हिंदुत्व के प्रति भड़काते हैं। इस सर्दी के मौसम में जहां लोग घर से भी निकलना नहीं चाहते, वहां हमारा देश का किसान सड़कों पर बैठा है। 9 दौर की बैठक बेनतीजा समाप्त हुई है। कहा जा रहा है कि या तो सरकार किसानों की सुनने के मूड में नहीं है? या फिर किसान वापस जाने के मूड में नहीं है? लेकिन यह सभी बातें व्यर्थ हैं। सरकार ने किसानों के सामने दो मांगों को स्वीकार किया और मामला दो मांगों पर फंसा हुआ है।
- किसानों की पहली मांग थी कि पराली जलाने पर आपराधिक कानूनों को खत्म किया जाए।
- बिजली के बिलों को माफ किया जाए।
- एमएसपी पर लिखित गारंटी दी जाए।
- कृषि कानूनों को रद्द किया जाए।
कुछ समय पहले जवाहरलाल यूनिवर्सिटी के कैंपस में,स्वामी विवेकानंद की मूर्ति पर पत्थर फेंके गए। मूर्ति के आसपास भगवा विरोधी,हिंदू विरोधी तथा फासीवाद से संबंधित नारे लिखे गए। लोगों ने कहा कि जेएनयू के छात्रों का विवेक खत्म हो चुका है। जेएनयू में देश विरोधी विचारधारायें पनप रही हैं। इस तरह के कार्य करने वाले लोग यदि किसान संगठनों के समर्थन में आकर सरकार विरोधी बातें करेंगे तो उसका सरकार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? देशवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसीलिए किसानों को अपने आंदोलन को ऐसे अराजक तत्वों के बचाना चाहिए जो उनके आंदोलन को बदनाम कर रहे हैं।