गृह युद्ध के मुहाने पर आखिर कैसे पहुंच गया पाकिस्तान?

पहले शिया-सुन्नी का टकराव, फिर देवबंदी-बरेलवी के बीच घमासान और अब विपक्ष का सरकार की घेराबंदी करना इस बात का सबूत है कि पाकिस्तान अपने ही जाल में फंसता जा रहा है। इससे भी हास्यास्पद और भला क्या हो सकता है कि जो पाकिस्तान आए दिन भारत को अस्थिर करने की फिराक में लगा रहता है, वो ही आज खुद बिखरने की दहलीज़ पर खड़ा दिख रहा है।

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पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रमुख दलों के द्वारा पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के नाम से नया गठबंधन बना है। इस मूवमेंट में पाकिस्तान मुस्लिम लीग यानी पीएमएल-एन और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जैसे प्रमुख दल शामिल हुए हैं। एक-दूसरे के विचारों से सहमत न होने के बावजूद भी जो चीज़ इन्हें जोड़े रख रही, वो है इन सबका सेना के प्रति गुस्सा। इस धड़े का मुख्य मकसद इमरान खान सरकार को सत्ता से बेदखल करना है जिससे राजनीति में सेना की भूमिका और उसके प्रभाव को खत्म किया जा सके। पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ सार्वजनिक जीवन का शायद ही ऐसा कोई कोना अछूता होगा जहाँ पर सेना का प्रभाव न हो। ऐसे में सेना को राजनीति के गलियारे से अलग करने की मांग करना, ऐसा पहली बार ही देखने में आ रहा है।

पाकिस्तान के इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो हमेशा से ही सेना ने अपने हाथों सरकारें बनवाईं और गिराईं हैं फिर चाहे ऐसा उसने पर्दे के पीछे किया हो या सामने आकर। वहाँ आज की घटनाएं भी बिल्कुल उसी तरह घट रही हैं जैसे साठ के दशक में अलग-अलग निर्वाचित सरकारों के अपने एक-दो साल के कार्यकाल पूरे करने के बाद उनके अपदस्थ होने की घटनाएं सामने आती थीं। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, नवाज़ शरीफ या बेनजीर भुट्टो की सरकारों को बर्खास्त करने हेतु पहले सेना की छत्रछाया में विरोधी दलों के गठबंधन बनाए जाते, आक्रोशित जन सड़कों पर निकलते, फिर सेना और न्यायपालिका मिलकर निर्वाचित सरकार को अपने हथकंडों से अपंग बनाते और अंततः उसे बर्खास्त कर दिया जाता। इस बार भी पाकिस्तान में कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा पर फर्क सिर्फ इतना है कि इसबार का गठबंधन खुद सेना के ही खिलाफ बना है।

पहली बार निशाने पर सेना

इमरान खान की हुकूमत और सेना के खिलाफ पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के बैनर तले विपक्ष का बड़ा आंदोलन पाकिस्तान को आज गृह युद्ध के मुहाने पर ले आया है। पहले शिया-सुन्नी का टकराव, फिर देवबंदी-बरेलवी के बीच घमासान और अब विपक्ष का सरकार की घेराबंदी करना इस बात का सुबूत है कि पाकिस्तान अपने ही जाल में फंसता जा रहा है। इससे भी हास्यास्पद और भला क्या हो सकता है कि जो पाकिस्तान आए दिन भारत को अस्थिर करने की फिराक में लगा रहता है, वो ही आज खुद बिखरने की दहलीज़ पर खड़ा दिख रहा है। वहीं, पीडीएम द्वारा 18 अक्टूबर के विशाल रैली के बाद सिंध पुलिस के बगावती तेवर से स्थिति और भी बिगड़ चुकी है।

इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत पीडीएम की पहली रैली नवाज़ शरीफ के गढ़ पंजाब के गुजरांवाला में 16 अक्टूबर और दूसरी जरदारी के गढ़ कराची में 18 अक्टूबर से शुरू हुई। गुजरांवाला की रैली में लंदन से प्रसारित नवाज़ शरीफ के भाषण ने उस धारणा को ध्वस्त कर दिया कि चाहे कुछ भी हो जाए पर सेना के खिलाफ कोई पाकिस्तानी नहीं बोल सकता। अपने भाषण में नवाज़ शरीफ ने जिस तरह ललकारते हुए सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और आईएसआई चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ के नाम लिए उससे कुछ देर तक मंच पर सन्नाटा पसर गया। अब तक सिर्फ दबी ज़ुबान में ही कहा जाता था कि इमरान खान सेना द्वारा सिलेक्टेड प्राइम मिनिस्टर हैं पर सिलेक्टर का नाम लेने की हिम्मत पहली बार नवाज़ शरीफ ने दिखाई।

गुजरांवाला रैली की गूंज अभी तक थमी ही नहीं थी कि 18 अक्टूबर को कराची की रैली का दिन आ गया। इस रैली की अगुवाई की नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ ने। मरियम ने गुजरांवाला की लाइन को आगे बढ़ाते हुए फौज पर बड़ा तीखा हमला किया और साथ ही इमरान सरकार को भी जमकर निशाने पर लिया। अपने ऊपर हुए इस हमले से तिलमिलाए इमरान खान ने अगले ही दिन सिंध प्रांत के मुख्यमंत्री पर नवाज़ शरीफ के दामाद और मरियम के शौहर कैप्टेन मोहम्मद सफदर की गिरफ्तारी करने का दबाव बनाया। जब मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्होंने पाकिस्तानी रेंजर्स को सिंध पुलिस के माध्यम से इस कार्रवाई को सुनिश्चित करने का आदेश दे दिया।

रेंजर्स द्वारा एक आईजी स्तर के अधिकारी को पहले अगवा करके उससे ज़बरदस्ती कैप्टेन की गिरफ्तारी के आर्डर पर हस्ताक्षर करवाए गए और फिर कैप्टेन मोहम्मद सफदर को गिरफ्तार कर लिया गया। नतीजतन, अब सिंध पुलिस ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया है। हालांकि, विवाद गहराता देख कैप्टन को अब रिहा कर दिया गया है पर अब मामला काफी दूर पहुंच चुका है जिसका फिलहाल निपटारा होते नहीं दिख रहा है।

अपने ही हाथों बर्बाद होता पाकिस्तान

विपक्षी दलों द्वारा इमरान और सेना के खिलाफ मुहिम एक ऐसे समय शुरू हुई है जब पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था निचले पायदान पर पहुंच चुकी है। उसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता की सख्त दरकार है। वहीं, पाकिस्तान के लिए एक और बुरी खबर ये रही कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ की हालिया बैठक में उसे ग्रे लिस्ट में ही पहले की तरह बने रहने का फैसला लिया गया है। आतंकवाद को अपनी विदेश नीति बनाए पाकिस्तान ने एफएटीएफ के ग्रे लिस्ट से बाहर आने के लिए कई दिखावे भरे फैसले किए जिनमें से एक था कि उसने अपने कई प्रमुख आतंकवादियों के बैंक खाते सील करने का दावा किया पर दुनिया की आँखों में हर बार धूल झोंकते पाकिस्तान की चाल इस बार कामयाब नहीं हो पाई और उसे ग्रे लिस्ट में बने रहने दिया गया।

इन प्रयासों को सफल बनाने के लिए भारतीय कूटनीति की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम होगी कि उसने पाकिस्तान के नापाक इरादों को दुनिया के सामने जब-तब उजागर किया है और हर बार सफल होने में कामयाब रही है। 2014 में मोदी सरकार के आने से देखते-ही-देखते भारतीय विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन देखने में आया है जैसा इससे पहले कभी किसी भी भारतीय सरकार में देखने को नहीं मिला। इसी आक्रामक भारतीय विदेश नीति का ही ये परिणाम है कि आज पाकिस्तान को सिवाए तुर्की और चीन के कोई समर्थन देने को तैयार नहीं दिखता। जो सऊदी अरब कल तक पाकिस्तान का खास दोस्त माना जाता था, उसने भी अब पाकिस्तान से कन्नी काट ली है।

ऐसे में पाकिस्तान के नेताओं का मानसिक संतुलन बिगड़ना लाजिमी है। ज़रूरत है कि आज पाकिस्तान सच्चाई से वाकिफ होकर भारत को अपना दुश्मन नंबर एक मानने के बजाए अपने देश के बिगड़ते हुए हालातों पर मंथन करे और अपने ही देश के उन दीमकों का इलाज करे जो उसे ही खोखला करने पर आमादा हैं।

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