मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव भारतीय राजनीति के मिट्टी से जुड़े हुए महारथी माने जाते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति के सबसे बड़े धुरंधर हैं ये दोनों। प्रदेश की जनता की नब्ज टटोलने में माहिर दोनों नेताओं ने अपने बलबूते पर एक छोटे से गांव से निकलकर संसद भवन तक का सफर तय किया है। कभी एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे मुलायम और लालू अब ना सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में एक दूसरे को समर्थन करते नजर आते हैं बल्कि ये दोनों आपस में पारिवारिक रिश्तों की डोर में भी बँधे हुए हैं। लालू और मुलायम के राजनीतिक सफर को देखा जाए तो इनमें काफी समानता देखने को मिलती है। दोनों ने ही अपने राजनीतिक दांव पेंच से देश की राजनीति में खास पैठ बनाई है। तेजी से बदलते राजनैतिक परिवेश में भी इन दोनों महारथियों का प्रभाव कम होता नहीं दिखा है। लेकिन दोनों नेता पुत्रमोह से लाचार हैं और अपने ही उत्तराधिकारी द्वारा उपेक्षा का शिकार होते दिख रहे हैं।
हम सभी साल 2016 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पहले चाचा-भतीजे की लड़ाई का गवाह बन चुके हैं। उस वक्त पुत्रमोह में फंसे मुलायम चाह कर भी अपने भाई शिवपाल को उनका हक नहीं दिला सके। हालांकि अपनी बयानबाजी से वो हमेशा से ही पुत्र और भाई दोनों को साथ लेकर चलने का संकेत देते रहे थे। लेकिन मुलायम का ये दाँव ज्यादा चल नही सका, और समाजवादी पार्टी शिवपाल और अखिलेश खेमे में बंटती नजर आयी। इस बँटवारे का परिणाम ये हुआ कि धीरे-धीरे कर मुलायम सिंह यादव सिर्फ समाजवादी पार्टी के पोस्टरों का ही हिस्सा रह गए। अखिलेश ने पिता की राह छोड़कर पार्टी की कमान अपने हाथ मे ले ली। खुद को पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त किया और फिर मुलायम को एक ताक पर रखकर साल 2016 के विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए। लेकिन मुलायम की कमी समाजवादी पार्टी के लिये बड़ा अभिशाप बनी, और साल 2016 के इलेक्शन में समाजवादी पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।
अखिलेश ने पिता की इच्छा को ताक पर रखकर मायावती के साथ गठजोड़ भी किया और कांग्रेस के राहुल का भी हाथ थामा। लेकिन फिर भी उन्हें सत्ता का सुख नहीं मिल सका। मुलायम की अनदेखी अखिलेश को भारी पड़ी, और आज तक उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी संघर्ष करती नजर आ रही है। लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि अखिलेश यादव को अब भी अपनी गलतियों का एहसास नही हुआ है, और वो लगातार पिता मुलायम को अनदेखा कर के ही चल रहे हैं। जबकि मुलायम सिंह ने अपने बेटे अखिलेश के राजनीतिक करियर के लिए अपने चहेते भाई शिवपाल तक को नजरअंदाज कर दिया था। लेकिन इसके बावजूद मुलायम को अपने पुत्र अखिलेश की ही अनदेखी का शिकार होना पड़ा है। राजनीतिक दांव पेंच में माहिर मुलायम, आखिर अपने पुत्र के आगे कोई भी दांव पेंच इस्तेमाल नही कर सके।
अब समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के नाम पर नहीं बल्कि अखिलेश यादव के काम पर वोट माँगती नजर आती है। धीरे-धीरे कर के समाजवादी पार्टी के पोस्टरों में मुलायम यादव की छवि छोटी और अखिलेश की छवि बड़ी होती जा रही है। जो कि साफ तौर पर अखिलेश द्वारा मुलायम सिंह यादव की अनदेखी का सबूत दे रहा है।
तेजस्वी भी अखिलेश की राह पर…
उत्तर प्रदेश जैसा ही माहौल अब बिहार के चुनाव से पहले वहाँ की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी आरजेडी में भी देखने को मिल रहा है। लालू प्रसाद यादव द्वारा खड़ी की गई पार्टी आरजेडी की कमान अब तेजस्वी यादव पूरी तरह से अपने हाथ मे लेते नज़र आ रहे हैं। साल 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से उन्होंने राजनीति में कदम रखा था। विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से ही तेजस्वी यादव को लालू यादव के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाने लगा। जेडीयू और आरजेडी की गठबंधन की सरकार में वो बिहार के उपमुख्यमंत्री भी बने। हालांकि, जेडीयू-आरजेडी गठबंधन अधिक दिन नहीं चला और तेजस्वी नेता प्रतिपक्ष बन गए।
तेजस्वी यादव के राजनीतिक जीवन मे बड़ा बदलाव तब हुआ जब लालू यादव को चारा घोटाला मामले ने जेल जाना पड़ा। ये ऐसा वक्त था जब तेजस्वी के आगे पार्टी को संभालने की बड़ी जिम्मेदारी के साथ ही खुद की भी अलग छवि तैयार करनी थी। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश की ही तरह तेजस्वी भी अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए पिता लालू की अनदेखी करते नजर आ रहे हैं। राजनीति में लालू प्रसाद यादव की दी हुई विरासत अपने हाथ मे लेते ही तेजस्वी इस बात को भूल रहे हैं कि जिस पार्टी के दम पर वो बिहार में बड़ा राजनीतिक चेहरा बने हुए हैं, उसे लालू प्रसाद यादव ने अपने खून-पसीने की मेहनत से खड़ा किया है। लालू प्रसाद यादव ने बिहार के छोटे-छोटे कस्बों और गांवों में जाकर पार्टी के लिए संघर्ष किया है, तब जाकर आज तेजस्वी को सिर्फ तैयार हुई फसल काटने का मौका मिल रहा है। लालू ने अपने बेटे तेजस्वी के लिए बिहार की राजनीति में बड़ा मंच तैयार किया है। लेकिन उस मंच पर पहुँचते ही तेजस्वी ने लालू को दरकिनार कर दिया।
तेजस्वी के पोस्टर से गायब हुए लालू
चारा घोटाले में जेल जाने के बाद लालू की खराब हुई छवि के प्रभाव से बाहर निकलकर तेजस्वी खुद को अपने पिता लालू से बेहतर साबित करने में जुटे हुए हैं। तभी तो तेजस्वी यादव कभी अपने चुनावी रैली में लालू सरकार में की गई गलतियों की माफी माँगते नजर आते हैं, तो कभी वर्तमान सरकार की खामियों पर निशाना साधते नजर आते हैं। यहाँ तक कि तेजस्वी की चुनावी रैलियों ने लगे कुछ पोस्टरों में से तो लालू प्रसाद का चेहरा भी गायब दिख रहा है। पोस्टर से लालू के चेहरा गायब होना कोई छोटी बात नहीं है। दरअसल ये इस बात का संकेत हैं कि तेजस्वी यादव अब खुद के राजनीतिक करियर को लेकर सजग हैं। वो अपने पिता के राजनीतिक विचारों के दम पर नहीं बल्कि खुद के चेहरे पर चुनाव लड़ना चाहते हैं।
लेकिन तेजस्वी को शायद जमीनी स्तर की हकीकत नहीं पता है। भले ही लालू प्रसाद यादव अब काफी वरिष्ठ हो चुके हैं और वो काफी दिनों से राजनीति से थोड़े दूर भी हैं। लेकिन अभी भी बिहार के लोगों के बीच उनकी वही पहचान है। आज भी लोग लालू को उसी दुलार से गले लगाकर सत्ता की कुर्सी पर देखना चाहते हैं, जैसा पहले था। तेजस्वी को ये बात जल्द से जल्द समझनी होगी। अगर उन्हें राजनीति में आगे बढ़ना है तो पिता लालू के दामन साथ लेकर बढ़ना होगा। अकेले वो बिहार के राजनीति में कुछ भी नहीं हैं। लालू की अनदेखी तेजस्वी को कितनी भारी पड़ सकती है, इसका अंदाजा उन्हें शायद बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद ही होगा।
इस वक्त तेजस्वी जिस तरह का माहौल बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, उससे पूरी सम्भावना है कि तेजस्वी खुद की छवि दुरुस्त करने के चक्कर में लालू के जमीनी वोटरों से हाथ धो सकते हैं। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव तेजस्वी के राजनीतिक भविष्य का निर्णायक साबित होने वाला है। अगर तेजस्वी इस चुनाव में जीत हासिल कर लेते हैं तो फिर बिहार में लालू की राजनीतिक पारी का अन्त ही समझिए। लेकिन इस बात की सम्भावना बेहद कम ही है। क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद यादव के पतन के बारे में सोचना महज एक कोरी कल्पना ही है और तेजस्वी शायद इसी कोरी कल्पना को सच मानकर अपने पिता लालू को नजरअंदाज कर रहे हैं और खुद को बिहार का नया राजनीतिक चेहरा घोषित करने में लगे हुए हैं। खैर, बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद तेजस्वी को सारी स्थिति निश्चित तौर पर समझ आ जायेगी।