मुख्य कलाकार: तापसी पन्नू, पवेल गुलाटी, रत्ना शाह पाठक, कुमुद मिश्रा, दीया मिर्जा, तनवी आजमी
निर्देशक: अनुभव सिन्हा
संगीतकार: अनुराग सैकिया, मंगेश धकड़े
आज के समय में हम खुद को भले ही कितना मॉडर्न और आधुनिक कह लें, लेकिन हमारे समाज में सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच आज भी मौजूद है। एक महिला को बचपन से यही सिखाया जाता है कि उसका जन्म पुरूषों की सेवा के लिए हुआ है। विवाह के बाद उसकी अपनी कोई ज़िन्दगी नहीं होती और वह केवल अपने पति के लिए ही जीवित रहती है। इन सब बातों को इस शुक्रवार रिलीज़ हुई तापसी पन्नू की नई फिल्म ‘थप्पड़’ में बहुत ही बेहतरीन तरीके से दिखाया गया है। इस फिल्म को एक फिल्म ना कहकर हकीकत का नाम देना भी गलत नहीं होगा। यह फिल्म बेहद ही खामोशी और शांति के साथ अपनी बात दर्शकों तक पहुंचा देती है। अनुभव सिन्हा के निर्देशन में बनी यह फिल्म ट्रेलर रिलीज़ होने के बाद से ही चर्चा में है। महिलाओं के साथ होने वाली घरेलु हिंसा पर आधारित इस फिल्म से पहले जनवरी में पंगा और छपाक जैसी फिल्मों में भी एक महिला को ही केंद्र में रखा गया था। वे दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों को आकर्षित करने में नाकामयाब साबित हुई थीं। लेकिन यह फिल्म (थप्पड़) अन्य महिलाओं पर केंद्रित फिल्मों से किस प्रकार अलग है, आइये जान लेते हैं।
कहानी
अमृता (तापसी पन्नू) एक क्लासिकल डांसर होती है, लेकिन शादी के बाद अपने पति विक्रम (पवेल गुलाटी) की खुशी के लिए वह सब कुछ छोड़ देती। अब अमृती की जिन्दगी का केवल एक मकसद होता है, अपने पति को खुश रखना और हर भारतीय महिला की तरह ही वह पति की खुशी में ही अपनी खुशी मान लेती है। अमृता और विक्रम का वैवाहिक जीवन अच्छा व्यतीत हो रहा होता है कि अचानक विक्रम का प्रमोशन हो जाता है और इसी खुशी में घर पर एक पार्टी का आयोजन किया जाता है। पार्टी के दौरान किसी बात पर विक्रम अपनी पत्नी अमृता को सभी के सामने थप्पड़ जड़ देता है। अमृता को यह बात बर्दाश्त नहीं होती कि आखिर उसे थप्पड़ क्यों मारा गया है।
इस क्यों का जवाब ढूंढने की कहानी ही यह फिल्म दर्शाती है। अमृता अपने पति का घर छोड़कर मायके चली जाती है। विक्रम की माँ उसे घर वापस आने के लिए बोलती है और यहां तक की अमृता की अपनी माँ भी यही बात बोलती है कि एक थप्पड़ के लिए कोई घर थोड़ी छोड़ देता है। लेकिन बात यहाँ एक थप्पड़ से ज्यादा आत्मसम्मान की होती है। सभी लोग अमृता को समझाते हैं कि शादीशुदा ज़िन्दगी में ये सब चलता रहता है लेकिन वह अपने पति से तलाक लेने का फैसला कर लेती है। इसी दौरान पता चलता है कि अमृता प्रेग्नेंट है। तो क्या अमृता और विक्रम का तलाक हो पाता है या फिर अमृता समझौते के लिए राजी हो जाती है, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।
एक्टिंग
इस फिल्म से तापसी पन्नू ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह एक लंबी दौड़ की धावक हैं। फिल्म में तापसी अपने संवादों से ज्यादा आँखों से बातें करने की कोशिश कर रही हैं। घरेलु हिंसा पर आधारित होने के बावजूद फिल्म में कहीं भी तापसी ऊँची आवाज़ में बात करती या चिल्लाती नज़र नहीं आती हैं। तापसी के पति का किरदार निभा रहे पवेल गुलाटी ने भी शानदार अभिनय किया है। अगले साल होने वाले फिल्मफेयर में डेब्यू मेल एक्टर के तौर पर यकीनन उनके नाम पर गौर किया जाएगा। वहीं तापसी की माँ के किरादर में रत्ना शाह पाठक और पिता के रोल में कुमुद मिश्रा भी अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब हो जाते हैं।
निर्देशन
फिल्म ‘आर्टिकल 15’ और ‘मुल्क’ के बाद अनुभव सिन्हा ने एक ओर संवेदनशील मुद्दे पर फिल्म बनाकर समाज की पितृसत्तात्मक सोच पर कड़ा प्रहार किया है। फिल्म शुरूआत से ही बेहद सुस्ती के साथ आगे बढ़ती है और कहीं भी रफ्तार पकड़ने में कामयाब नहीं हो पाती। इसके बावजूद यह फिल्म दर्शकों को अंत तक जोड़े रखने में कामयाब हो जाती है। अनुभव सिन्हा ने फिल्म को शोर-शराबा और फालतू के मेलोड्रामा से दूर रखने की ही कोशिश की है। कई दृश्यों में कोई संवाद ना होने के बावजूद वे दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाने में भी सफल हो जाते हैं।
क्या है फिल्म की खासियत
यह फिल्म केवल एक फिल्म नहीं बल्कि भारत के अधिकांश घरों की सच्चाई बयां करती है। यदि एक थप्पड़ पर महिलाएं अपने मायके चली जाए और तलाक लेने की बात कह दें तो शायद भारत के 50 फीसदी घरों में तलाक हो जाएगा। भारतीय दर्शक इस तरह की फिल्मों की तरफ बहुत कम आकर्षित होते हैं। फिल्म चाहे किसी भी मुद्दे पर बनी हो दर्शक हर फिल्म में मसाला ढूंढने की कोशिश करते हैं। यदि मसाला फिल्मों का शौक रखते हैं तो यह फिल्म आपको निराश कर सकती है। लेकिन यदि महिलाओं के आत्मसम्मान का मान करते हैं और उनका समाज में बराबरी का दर्जा देना मानते हैं तो एक बार यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। इसके अलावा हर महिला, माँ, बहन, बेटी और बहु को तो यह फिल्म देखनी ही चाहिए।