शिकारा फिल्म रिव्यू: 1990 में कश्मीर से हिंदूओं के पलायन की कुछ अनसुनी कहानियां बयां करती है विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा’

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मुख्य कलाकार: आदिल खान, सादिया खान

निर्देशक: विधु विनोद चोपड़ा

संगीत: ए आर रहमान, अभय सपोरी, रोहित कुलकर्णी

अपनी ज़िन्दगी के कुछ असली पहलुओं को एक कहानी के जरिए बड़े पर्दे पर उतारना आसान काम नहीं है। इस हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही फिल्म ‘शिकारा’ भी ऐसी ही फिल्म है, जिसमें निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी ज़िन्दगी के उन पन्नों को दिखाने की कोशिश की है, जिसके बारे में सोचकर आज भी शायद उनके दिल को दर्द होता होगा। सन 1990 में कश्मीर से रातोंरात लाखों हिंदूओं के पलायन की कहानी पर आधारित है फिल्म ‘शिकारा’। लेकिन इस तरह की फिल्मों को देखने वाले भारत में केवल मुट्ठीभर दर्शक ही मौजूद है। निर्देशक ने इस फिल्म को संभालने का भार बड़े कलाकारों की बजाय दो नए चेहरे आदिल खान और सादिया खान को दिया है। अक्सर इस तरह की फिल्में अपनी लागत निकालने जितनी कमाई भी नहीं कर पाती है।

कहानी

फिल्म की कहानी एक नवविवाहित जोड़े शिव (आदिल खान) और शांति (सादिया खान) से शुरू होती है। ये दोनों शादी के बाद कश्मीर में अपना एक आशियाना बनाते है और इस आशियाने का नाम वे रखते है ‘शिकारा’। वे दोनों अपना जीवन आनन्दपूर्ण तरीके से व्यतीत कर रहे होते है कि तभी अचानक एक रात उनके घर पर पत्थर से हमला होने लगता है। घर के बाहर हज़ारो की संख्या में लोग नारे लगा रहे होते है कश्मीर छोड़कर चले जाओ। अपनी जान बचाने के लिए लाखों लोगों के साथ शिव और शांति भी अपना घर और कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते है। इसके बाद वे अपने ही देश में रिफ्यूजी बनकर रहने लगते है। कई साल तक वे इसी उम्मीद के साथ रिफ्यूजी कैंप में रहते है कि एक दिन वे कश्मीर के अपने आशियाने में वापस लौट सकेंगे। इन सभी दृश्यों के साथ कश्मीर की कुछ अनसुनी कहानियां फिल्म में देखने को मिलेगी। इसके अलावा फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो आजतक आपने टीवी न्यूज़ की डिबेट और अखबारों ना पढ़ा हो।

एक्टिंग

इस फिल्म में कोई बड़ा चेहरा या सुपरस्टार नहीं है, जिसके दम पर यह फिल्म ऑडियंस को अपनी तरफ आकर्षित कर पाए। फिल्म में आदिल और सादिया दोनों ही अपने रोल में सटीक नजर आते है। इनके चेहरे के एक्सप्रेशंस, मासूमियत और आँखों में झलकने वाला दर्द बेहतरीन है, लेकिन ये सिनेमाघर में बैठे दर्शकों को अपने साथ बांधने में ज्यादा कामयाब नहीं हो पाता है। फिल्ममेकर्स ने इसके प्रमोशन पर भी ज्यादा पैसा खर्च नहीं किया जिससे जनता को सादिल और आदिया की इस फिल्म के बारे में जानकारी मिल सके। हालांकि, यहां ये कहना गलत नहीं होगा कि आदिल और सादिया दोनों ही कुछ सालों में फिल्म इंडस्ट्री के नामी चेहरो के बीच अपनी जगह बनाने का दम रखते है।

निर्देशन

फिल्म का निर्देशन और लेखन विधु विनोद चोपड़ा ने किया है। उनकी माँ का भी कश्मीर में एक आशियाना हुआ करता था। लेकिन 1990 में विस्थापन के बाद उनकी माँ एक बार भी अपने आशियने में वापस नहीं लौट सकी। विधु विनोद चोपड़ा ने फिल्म को मौज-मनोरंजन की दुनिया से दूर रखकर केवल कश्मीर की सच्चाई दिखाने की कोशिश की है। तनावपूर्ण माहौल के बीच जो उन्होंने शिव और शांति की लव स्टोरी दिखाई है, वह कुछ हद तक तारीफ के काबिल है। इसके अलावा फिल्म में ऐसा कोई भी दृश्य नहीं है, जिसे देख दर्शकों के मन में फिल्म के प्रति उत्सुकता पैदा हो या फिर वे तालियां और सीटियां बजाने के लिए मजबूर हो जाए। शुरूआत से लेकर अंत तक पूरी फिल्म की स्टोरी कहीं भी रफ्तार नहीं पकड़ पाती है।

क्या है फिल्म की खासियत

फिल्म में कश्मीर के कई अनसुने पहलुओं को बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है। इसका बैकग्राउंड म्यूज़िक और सिनेमाटोग्राफी प्लस पॉइंट है। फिल्म में कश्मीर की खूबसूरती देखने के बाद आप भी जान जाएंगे, कि क्यों इसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है। वहीं फिल्म के कुछ दृश्य आपकी आँखें भी नम कर देंगे। भारत में बहुत सीमित लोग ही इस तरह की फिल्मों को पसंद करते है और यह बात निर्देशक भी भली-भांति जानते होंगे। लेकिन उन्होंने यह फिल्म कमाई के उद्देश्य से नहीं बल्कि लोगों के सामने कश्मीर की हकीकत बयां करने के उद्देश्य से बनाई है। यदि वास्तव में कश्मीर के विस्थापन की तस्वीरों को देखना चाहते है तो एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है। हालांकि मसालेदार, सस्पेंस और कॉमेडी फिल्मों के शौकीन लोगों को फिल्म में कुछ खास नहीं मिलेगा और वे इस फिल्म से दूर रहने की ही कोशिश करें।

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