आखिर कैसे लव जिहाद बनता जा रहा है देश की एक विकराल समस्या?

लव जिहाद के मामलों में बड़ी संख्या में पीड़ित किशोरियों की दलित पहचान होने के बावजूद भी एससी-एसटी एक्ट की धाराएं भी तबतक नहीं लगाई जातीं, जबतक अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग विषय का संज्ञान न ले ले। अपहृतों के चुंगल में फंसी किशोरियों के शारीरिक शोषण और जान का खतरा होने के बावजूद भी पुलिसिया कार्रवाई में कोई तेज़ी नहीं दिखती। बिल्कुल ऐसा ही रवैया मीडिया के एक हिस्से का भी नज़र आता है।

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आखिर कैसे लव जिहाद बनता जा रहा है देश की एक विकराल समस्या?

वैसे तो हर प्रकार का बाल शोषण समाज में उद्वेलना का विषय है पर मज़हबी उद्देश्य से बच्चियों को लक्षित करके उनका शोषण करना एक व्यवहार जनित विकृति है। इस विकृति का प्रदर्शन नियमित रूप से देखने को मिलता रहता है। इस मध्ययुगीन घृणित सोच को और अधिक बल देश की भ्रष्ट और असहाय व्यवस्था से मिल रहा है। अधिकांश मामलों में पुलिस का रुख उदासीन या कभी-कभी प्रतिकूल भी होता है।

पीड़ितों के नाबालिग होने के बावजूद भी न तो आरोपियों पर पोक्सो एक्ट लगाया जाता है और न ही दुष्कर्म की वैसी धाराएं जो ऐसे मामलों में सामान्यता लगाई जाती हैं। अक्सर मामला सामने पर यही पता चलता है कि कैसे एक मुसलमान युवक ने साज़िश के तहत एक हिंदू लड़की को अपने प्यार में फंसाने के लिए पहले अपना नाम किसी हिंदू नाम का रख लिया और फिर उसका अपरहण करके जबरन निकाह करने का प्रयास किया। अचरज की बात तो ये है कि आज ये इतनी गंभीर समस्या बन जाने के बावजूद भी इसपर न तो खुलकर मीडिया चर्चा करती है और न ही सरकार-प्रशासन हरकत में आती मालूम होती है।

लव जिहाद पर प्रहार करने की है ज़रूरत

बिहार के बेगूसराय में एक पंद्रह वर्षीय बच्ची के अपरहण पर जनता और पुलिस-प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक दिल्ली की पत्रकार ने अथक प्रयास किये। जो बिहार पुलिस सुशांत सिंह राजपूत मामले में इतनी कर्मठ नज़र आ रही थी, वही बेगूसराय मामले में उदासीन बनी रही। जब सभी जगह से इस मामले में उचित संज्ञान नहीं लिया गया तब एक माह बाद उस महिला पत्रकार ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग में गुहार लगाई, तब आयोग ने कार्रवाई का नोटिस दिया और फिर कहीं जाकर पुलिस हरकत में आई और आरोपी इज्मुल खान को गिरफ्तार किया गया।

ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में सामने आया जहाँ एक हिंदू युवती के परिजनों ने पड़ोसी शावेज़ पर उसके अपरहण का आरोप लगाया। वहीं, यूपी के ही लखीमपुर खीरी में एक सत्रह वर्षीय दलित छात्रा की दिलशाद नामक युवक ने महज़ इसलिए नृशंस हत्या कर दी क्योंकि उस लड़की ने उससे निकाह करने से मना कर दिया था। ये उपर्युक्त तीनों मामले केवल कुछ दिनों की एक छोटी सी तस्वीर भर हैं। ऐसे अनगिनत मामले अखबारों की सुर्खियां बनने से पहले ही गायब कर दिए जाते हैं। सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि ऐसी समस्याओं के साथ राजस्थान, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्य भी जूझ रहे हैं। नाबालिग हिंदू युवतियों को चिन्हित कर उनका अपरहण करने एवं उनसे जबरन निकाह करने के प्रयास आज देश की एक विकराल समस्या बन चुके हैं, जिनका समाधान तो दूर, उनपर चर्चा भी सार्वजनिक विमर्श से गायब दिखती है।

सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व क्यों मौन है मज़हबी उन्माद के आगे?

देश का सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व वैसे तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू युवतियों के अपरहण और उनसे जबरन निकाह को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गंभीरता से उठाता रहता है, लेकिन अपने ही देश में ऐसे मामलों पर चुप्पी साधे रहता है। देश का कानून 18 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं से किसी भी व्यसक के संबंधों को स्पष्ट रूप से शारीरिक शोषण और उनके लोप को अपरहण मानता है, वहीं अधिकतर मामलों में आरोपी के पकड़े जाने पर अपरहणकर्ता और उसके परिजन इन कुकर्मों का बचाव बेहद घटिया तरीके से प्रेम प्रसंग बताकर करते हैं। गौरतलब है कि मस्जिदों से धर्म परिवर्तन के प्रमाण पत्र और काज़ी द्वारा निकाहनामे भी फौरन तैयार करवा लिए जाते हैं। ये प्रमाण पत्र अक्सर पुरानी तारीखों के बनाये जाते हैं।

इस तरह के प्रपत्रों पर नाबालिग अपहृतों की आयु को 18 वर्ष से ऊपर दर्ज किया जाता है। इस प्रकार मानवीयता को शर्मसार कर और कानून को ताक पर रखकर अपरहणकर्ताओं के समर्थन में मज़हबी लामबंदी उस मानसिकता को दर्शाती है जिसमें 14-15 साल को ही विवाह योग्य आयु मान लिया जाता है। इसी तरह के एक और मामले में दो वर्ष पूर्व गाज़ियाबाद में एक 11 वर्षीय बच्ची के अपरहण और उसके साथ दुष्कर्म करने की घटना ने सनसनी फैला दी थी। अपरहणकर्ता मात्र सत्रह साल का युवक था, जिसे एक मौलवी ने मदरसे में पनाह दी थी। सोशल मीडिया पर इस संगीन मामले को भी प्रेम प्रसंग बताने की भरसक कोशिशें की गईं थीं। अक्सर ऐसे मामलों पर पुलिस का रुख भी गैर-जिम्मेदाराना होता है।

पुलिस कई बार पीड़ितों के अवयस्क होने के बावजूद भी आरोपियों पर उचित कार्रवाई करने से कतराती है। कई मामलों में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलने का खतरा बताकर आरोपियों के नाम भी पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज नहीं करती है। दिल्ली के सुल्तानपुर इलाके में एक 14 वर्षीय बच्ची के अपरहणकर्ता सद्दाम अंसारी का नाम पुलिस ने बार-बार यह कहकर एफआइआर में दर्ज करने से मना कर दिया था कि इससे मामला सांप्रदायिक हो जाएगा।

नाबालिग हिंदू बच्चियों पर होते अत्याचारों पर कबतक चुप बैठेगा समाज?

लव जिहाद के मामलों में बड़ी संख्या में पीड़ित किशोरियों की दलित पहचान होने के बावजूद भी एससी-एसटी एक्ट की धाराएं भी तबतक नहीं लगाई जातीं, जबतक अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग विषय का संज्ञान न ले ले। अपहृतों के चुंगल में फंसी किशोरियों के शारीरिक शोषण और जान का खतरा होने के बावजूद भी पुलिसिया कार्रवाई में कोई तेज़ी नहीं दिखती। बिल्कुल ऐसा ही रवैया मीडिया के एक हिस्से का भी नज़र आता है।

नाबालिग हिंदू लड़कियों पर आए दिन हो रहे इन मज़हबी आघातों में जहाँ पुलिस का ढीला रवैया सवालों के घेरे में रहता है, इसीके साथ कानूनी खामियों के चलते इन गंभीर अपराधों में सम्मिलित काज़ी और मौलवियों पर उचित कार्रवाई भी सीमित हो जाती है। इसी के चलते कट्टरपंथी काज़ी फर्ज़ी निकाहनामे बनाने का दुस्साहस कर पाते हैं। किसी भी ठोस कानून के अभाव में ज़बरदस्ती या धोखे से कराए गए धर्म परिवर्तन में राज्यों द्वारा बनाये गए कानूनों का ही सहारा रह जाता है, पर बड़ी विडंबना ये है कि मात्र आठ राज्यों में ही इस आशय के कानून बने हुए हैं।

गौरतलब है कि इन प्रावधानों के तहत आज तक पूरे भारत में कभी किसी आरोपी को सज़ा नहीं हुई है। इसी प्रकार समान नागरिक संहिता का अभाव दूसरी बड़ी कानूनी अड़चन है। हालांकि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इस प्रकार के मामलों में कार्रवाई के लिए एक एक्शन प्लान बना रही है। मोदी सरकार को आज समझना होगा कि उसकी चुनौती लिंग अनुपात में सुधार, लैंगिक समानता के प्रयास, अपराध और शोषण से बचाव के साथ ही किशोरियों को मज़हबी आखेट से बचाने की भी है। इस प्रयास में हिंदू और मुस्लिम समाज के साथ ही सभी वर्गों के बुद्धिजीवियों को एकजुट होकर इस समस्या से लड़ने के लिए आवाज़ उठानी होगी।

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