वैसे तो हमेशा से ही भारत की वैश्विक स्थिति किसी न किसी रूप में विशिष्ट बनी रही है। वहीं, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के बीच की लड़ाई के अंत में भारत की भूमिका विश्व भर में उभर कर आई है। अब कहा जा रहा है कि कोरोना की चुनौती से निपटने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति और भी मज़बूत हो जाएगी। जिस तरह से कोरोना संकट के कारण दुनिया के अधिकतर देश जब घुटने टेक चुके थे, ऐसे समय में उन सभी देशों की सहायता करने के लिए भारत आगे आया था और उसने अपने स्तर पर हर-संभव मदद भी की।
कोरोना के कारण इस बदले वैश्विक समीकरण में अधिकांश देश आज इसीलिए भारत से अपेक्षाएं रख रहे हैं क्योंकि हर सामान्य नागरिक को शांति और अहिंसा चाहिए। उन्हें युद्ध, घातक हथियारों के आत्मघाती जखीरे बढ़ाने की होड़, आतंकवाद और कट्टरपंथी तत्वों से निजात पानी है। पाकिस्तान, तुर्की या चीन के अलावा अन्य सभी देश आज भारत को विश्व शांति के प्रयासों में आगे आते देखना चाहते हैं क्योंकि भारत की ऐतिहासिक साख ही कुछ ऐसी रही है जिसने न कभी किसी दूसरे देश में लूटपाट की, न शोषण और न ही अकारण आक्रमण किया।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत स्थाई सदस्य क्यों नहीं?
बीती सदी में दो विश्व युद्धों की विभीषिका झेल चुके मानव-समाज ने विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की थी। तब सुरक्षा परिषद के चार स्थाई सदस्य बने- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ। संयुक्त राष्ट्र संघ बनाते समय इसमें प्रजातांत्रिक मूल्यों और हर सदस्य देश को बराबरी देने की बात कही गई थी पर बड़ी चालाकी से सुरक्षा परिषद के चारों सदस्यों को वीटो पॉवर दे दी गई। वीटो पॉवर के आ जाने से सुरक्षा परिषद का कोई भी एक सदस्य सब कुछ रोक सकता था।
भारत की सह्रदयता और सतत प्रयासों से चीन भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक स्थाई सदस्य बन गया। पहले 1962 में भारत से युद्ध कर चुका चीन, आज पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को अस्थिर करने में जुटा हुआ है। ऐसे में कहा जा सकता है कि राजनीति में अहसान कभी भी विश्वासघात का रूप ले सकता है। अगर 1950-60 के आस-पास भारत इस सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनने के लिए थोड़ा भी प्रयत्न करता तो इसमें उसे ज़रूर कामयाबी मिल सकती थी और फिर वह उसमें आवश्यक संरचनात्मक सुधार कर सकता था। दुनिया के अनेक विचारक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यदि भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में उचित सम्मान दिया जाता और उसके शांति प्रयासों में सहयोग किया गया होता तो आज विश्व में शांति स्थापना की स्थिति पूरी तरह अलग होती।
संयुक्त राष्ट्र संघ की गिरती साख
यह हास्यास्पद है कि चीन खुद तो भारत से लगती सीमा के पास हर तरह के निर्माण करने में लगा हुआ है लेकिन वह ये चाह रहा है कि भारत ऐसा न करे। चीन को आज ये बताने की सख्त ज़रूरत है कि अगर वो भारत के हितों की चिंता नहीं कर सकता तो भारत भी उसके हितों की परवाह नहीं कर सकेगा। ऐसे में जब भी चीन अपना अड़ियल रवैया दिखाते हुए लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताए तब भारत को चीन के द्वारा अवैध तरीके से कब्ज़ाये गए तिब्बत, हांगकांग और ताइवान को आज़ाद करवाने की बात बिना किसी लाग-लपेट के प्रमुखता से विश्व मंच पर उठानी चाहिए। कोरोना वायरस फैलाने का दोषी माना जा रहा चीन आज अपने अतिक्रमणकारी रवैये से करीब-करीब हर पड़ोसी देश को तंग करने में लगा हुआ है। ऐसे में भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उसके खिलाफ माहौल बनाने और उसकी घेराबंदी करने के लिए प्रयास करने होंगे। इसके साथ भारत को विश्व मंच पर यह सवाल ज़रूर उठाना चाहिए कि आखिर इसका क्या औचित्य है कि अंतर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों को बेशर्मी के साथ धता बताने वाला चीन, अभी तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बना हुआ है?
संयुक्त राष्ट्र संघ को सिर्फ चीन ही चुनौती नहीं दे रहा बल्कि अमेरिका भी इसकी यथास्थिति से परेशान हो उठा है। संयुक्त राष्ट्र संघ जिसके साए में फला-फूला और जिसके फलस्वरूप वो वर्तमान आकार ले सका, वही अमेरिका उससे आज अलग होना चाह रहा है। करीब सात दशकों से अधिक समय तक दुनियाभर में शांति एवं समृद्धि का मूल रहा संयुक्त राष्ट्र, आज की चुनौतियों से निपटने में निरर्थक साबित हो रहा है। इससे भारत जैसे देशों के लिए यह आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य हो चुका है कि वे एक ऐसी दुनिया में जहाँ विश्व की महाशक्तियों के मध्य शक्ति और संघर्ष के बीच खींचातानी और बढ़ चुकी है, वहाँ अपने हितों की रक्षा करने हेतु किसी वैकल्पिक रणनीति पर विचार करे। भारत जैसा देश जो अपनी भूमिका के दायरे में विस्तार करने का आकांक्षी हो, उसके लिए कोई और बहुपक्षीय और वैश्विक ढांचा तलाशना आज समय की मांग बन चुका है।
संयुक्त राष्ट्र की अक्षमता पर प्रधानमंत्री मोदी की दो-टूक राय
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के हीरक जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित हुए कार्यक्रमों के बीच यह बात खासी अखरती है कि इस संस्था को बहुपक्षीय बनाने की कवायद अभी भी अधर में लटकी हुई है। इस बीच प्रधानमंत्री मोदी का संयुक्त राष्ट्र में दिया गया संबोधन अपनी ओर बरबस ही ध्यान खींचता है। यह भाषण केवल इसी कारण महत्वपूर्ण नहीं था कि इसमें यूएन को सही मायनों में बहुपक्षीय ढांचे के रूप में बनाने की बात कही गई बल्कि यह इस वजह से भी अहम था कि उसमें भारत के नज़रिए में बदलाव का संकेत भी समाहित था। 2014 के बाद से वैश्विक समीकरण होशियारी से साधती नई दिल्ली अब न केवल संयुक्त राष्ट्र को वैश्विक ढांचे को आकार देने में अपनी महत्ता दर्शा रही है बल्कि यह भी स्पष्ट कर रही कि भारत के बिना संयुक्त राष्ट्र की साख और विश्वसनीयता दांव पर है।
प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट को ‘विश्वास के संकट’ के आलोक में आत्मविश्लेषण की चुनौती देते हुए उसके बहुपक्षीयता के ऐसे नए ढांचे की पैरवी की जिसमें सभी पक्षों की आवाज़ें सुनी जाएं, जहाँ मौजूदा समस्याओं का समाधान निकल सके और मानवीय कल्याण पर ध्यान केंद्रित हो सके। मोदी ने संस्था को आड़े हाथों लेते हुए उससे पूछा कि इस कोरोना महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया उससे जूझ रही है, ऐसे वक्त संयुक्त राष्ट्र कहाँ खड़ा है? उसकी आवश्यक एवं प्रभावी प्रक्रिया कहाँ है? मोदी ने यह भी पूछा कि उस देश को आखिर कितना इंतज़ार करना पड़ेगा, जहाँ खुद ऐसे आधारभूत बदलाव आकार ले रहे हों, जो दुनिया को प्रभावित कर रहे हैं। इससे उनका आशय यूएन में सुधारों को लेकर भारत में बढ़ती बेचैनी से था।
गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सुरक्षा ताने-बाने का संबंध मुख्य रूप से यूरोप और उसके आसपास के इलाकों की सुरक्षा पर केंद्रित था। आज हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे को तय कर रहा है। ऐसे में सवाल उठना जायज़ है कि अगर यूएन अपने में सुधार कर भी लेता है तो क्या इस नए भू-राजनीतिक तनाव और नई सुरक्षा चुनौतियों के समाधान में वो सक्षम हो पाएगा? इस प्रकार मोदी की टिप्पणी संयुक्त राष्ट्र के लिए दो-टूक चेतावनी है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसकी अनुपस्थिति और वास्तविक सुधारों के अभाव में नई दिल्ली को दूसरे विकल्पों पर विचार करना पड़ सकता है। वैसे अब इसकी शुरुआत भी होती दिख रही है।