हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 13 बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के तहत मिली चंदा लेने की अनुमति रद्द कर दी है। इनमें से अधिकतर संगठन झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व के राज्यों में सक्रिय थे और विदेशी चंदे का दुरूपयोग धर्मांतरण कराने के लिए कर रहे थे। गृह मंत्रालय के इस फैसले के बाद संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन सांसद संजय सेठ की ओर से जिस तरह झारखंड में आदिवासियों के धर्मांतरण का मसला उठाया गया, उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ईसाई मिशनरियों का आतंक किस तरह देश में फल-फूल रहा है। भारत में धर्मांतरण के अग्रदूत ईसाई मिशनरी ही हैं। बहरहाल, हमेशा की तरह इंटरनेशनल क्रिश्चियन कंसर्न जैसे संगठनों ने इस फैसले पर विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं। वहीं, अब इसके आसार भी हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर ईसाई मिशनरियों के कार्यों को आसान बनाने वाले विदेशी संगठन भारत में कथित रूप से घटती धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई रिपोर्ट जारी कर दें। भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे अमूमन ऐसा करते रहते हैं। भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें अपने पंथ के प्रचार का भी अधिकार शामिल है, लेकिन हर अधिकार की तरह इस अधिकार की भी कुछ सीमाएं हैं।
महात्मा गांधी भी थे ईसाई मिशनरियों के कटु आलोचक
महात्मा गांधी ब्रिटिश शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलापों से नाराज़ रहते थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि किस प्रकार राजकोट में उनके स्कूल के बाहर एक ईसाई मिशनरी हिंदू देवी-देवताओं के लिए बेहद अपमानजनक शब्दों का उपयोग करता था। गांधी जी अपने जीवनकाल में हमेशा ही ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा कार्यों के नाम पर किये जाने वाले धर्म परिवर्तन के विरुद्ध रहे थे। जब अंग्रेज़ भारत से जाने लगे तो ईसाई मिशनरी लॉबी ने सवाल उठाया कि स्वतंत्र भारत में क्या उन्हें धर्म परिवर्तन करते रहने दिया जाएगा, तो गांधी जी ने इसका जवाब न में दिया था। गांधी जी के अनुसार लोभ-लालच के बल पर धर्म परिवर्तन करना घोर अनैतिक कृत्य है। इसपर मिशनरी लॉबी ने बहुत हंगामा किया था। आज़ादी के समय हमारा देश बेहद गरीब हो चुका था और वित्तीय सहायता के लिए पाश्चात्य ईसाई देशों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायताओं पर निर्भर था, इसलिए भारत को मिशनरियों के आगे झुकना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप संविधान में अपने पंथ के प्रचार का अधिकार कुछ पाबंदियों के साथ दिया गया लेकिन फिर एक के बाद एक सरकारें मिशनरी लॉबी के सामने मजबूर होती चली गईं।
ब्राह्मणों को मिटाने की साज़िश में लिप्त ईसाई मिशनरियां
पुर्तगाली काफिले के साथ भारत आए ईसाई मत के प्रचारक फ्रांसिस जेवियर ने कहा था कि ब्राह्मण लोग शैतानी भूतों के साथ सहयोग रखते हुए हिंदुओं पर अपना प्रभाव रखते हैं, इसलिए हिंदुओं को ईसाइयत का प्रकाश देने हेतु ब्राहमणों का प्रभाव तोड़ना प्राथमिकता होनी चाहिए। जेवियर ने बल प्रयोग की खुली वकालत की पर पुर्तगाली औपनिवेशक शासकों ने उसे उतनी सेना नहीं दी जितनी वो चाहता था, फिर भी जेवियर ने गोवा में बड़े पैमाने पर ज़ुल्म ढाए। हिंदू मंदिरों को तहस-नहस करने से मिली खुशी का उसने स्वयं वर्णन किया है। उसका पहला निशाना ब्राह्मण ही थे इसीलिए तबके हिंदू राजा पुर्तगालियों से संधि करते समय स्पष्ट लिखवाते थे कि वे ब्राह्मणों को नहीं मारेंगे लेकिन मिशनरियों का गंभीर प्रहार वैचारिक था जिसके दुष्प्रभाव आज और बढ़ चुके हैं। निरंतर प्रचार ने आम यूरोपीय और भारतीय विमर्श में ऐसी विषैली बातें प्रवेश करवा दीं हैं जिससे हिंदुओं की अस्मिता को छिन्न-भिन्न किया जा सके। कथित सेक्युलर, मार्क्सवादी, इस्लामी और कुछ क्षेत्रीय दल जिन ब्राहमण द्वेषी बातों को स्वयंसिद्ध मानते हैं, उनकी शुरुआत मिशनरी प्रकाशनों से हुई। डॉ. कूनराड एल्स्ट ने विश्व इतिहास में यहूदी विरोध के सिवा ब्राहमण विरोध ही मिशनरियों का सबसे बड़ा दुष्प्रचार अभियान बताया है।
धर्मांतरण के नए हथकंडे आज़माते ईसाई मिशनरी
धर्म परिवर्तन कराने के लिए पैसों का इस्तेमाल तो देश की आज़ादी से पहले से भी हुआ करता था पर अब आज़ादी के बाद इसने और भी विकराल रूप ले लिया है। पहले भी और आज भी विविध मिशनरी ब्राह्मणों को मिटाने पर एकमत हैं। उनमें मतभेद केवल तरीकों को लेकर मिलता है। जैसे रोबर्ट दे नोबिली बल प्रयोग के बदले धोखाधड़ी को सही मानता था। वह ब्राहमणों वाले पहनावे में खुदको रोमन ब्राह्मण बताते हुए येशुर्वेद यानी जीससवेद को पांचवा वेद कहता था। ऐसी धोखे की विधियां आज कई मिशनरियां जमकर प्रयोग में ला रही हैं। देश में मिशनरियों ने अपने अनुभवों से पाया कि भारतीय धर्मों के लोग अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं से भावनात्मक तौर पर इतने गहरे जुड़े हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी भारत में करोंड़ों की संख्या में धर्म परिवर्तन संभव नहीं हो पा रहा है।
ऐसे में उन्होंने नए हथकंडों का प्रयोग शुरू किया जैसे हिंदू मंदिरों में जीसस या मैरी की फोटो लगा देना, मदर मैरी की गोद में ईसा मसीह की जगह गणेश या कृष्ण को चित्रांकित कर ईसाइयत का प्रचार करना जिससे आदिवासियों को लगे कि वे तो हिंदू धर्म के ही किसी संप्रदाय की सभा में जा रहे हैं। आजकल तो चर्चों को हिंदू डिज़ाइन देकर भोले हिंदुओं को फंसाकर ले जाना और उन्हें ईसाई अनुष्ठानों से जोड़ने और हिंदू व्यवहार से तोड़ने के तरीके भी आजमाए जा रहे हैं। नोबिली की कल्पना थी कि किसी तरह पहले ब्राहमणों को धर्मांतरित करा लें तो फिर आम हिंदुओं को ईसाई बनाना आसान हो जाएगा। इसी तरह आज ईसाई मिशनरियों को भगवा वस्त्र पहने हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर तिरुपति बालाजी तक धर्म प्रचार करते हुए पाया जा सकता है। यही हाल पंजाब में है जहाँ बड़ी संख्या में सिखों को ईसाई बनाया जा रहा है। पंजाब में तो चर्च का दावा है कि प्रदेश में ईसाईयों की संख्या सात से दस प्रतिशत हो चुकी है।
ब्राह्मण विरोध की आड़ में हिंदू विरोध
पोप ग्रिगोरी पंद्रहवें ने भारत में चर्च में जाति-भेद रखने की मान्यता दी थी। 18-19वीं सदी तक चर्च ने समानता के विचार का कड़ा विरोध किया था। गोवा में कई चर्च आज भी उच्च जाति और निम्न जाति के लोगों के लिए आने-जाने के अलग दरवाज़े रखते हैं। ऐसी चीज़ें किसी हिंदू मंदिर में नहीं मिलतीं। यह तो सिर्फ पिछले डेढ़ सौ साल की बात है कि जब समाजवादी हवा ने दुनिया पर असर डाला तब चर्च ने रंग बदलकर खुदको शोषित-पीड़ित समर्थक बताना शुरू किया था। भारत में सेंट थॉमस या जेवियर समानता का संदेश लेकर भारत नहीं आए थे। उन्होंने बल प्रयोग और छल-प्रपंच का प्रयोग कर यहाँ ज़मीनें फैलाईं।
गौरतलब है कि आज भारत में सबसे ज़्यादा ज़मीनों का मालिकाना हक ईसाई मिशनरियों के पास है। ईसाई मिशनरियों के लिए आज दलित-आदिवासी समूह उसी तरह मोहरे हैं जैसे पहले उन्होंने ब्राहमणों को बनाने की कोशिश की थी। उसमें असफल होने पर ही उनका ब्राहमण विद्वेष आज और बढ़ चुका है। इनके झूठे प्रचारों से ही हम जातियों के बारे में नकारात्मक बातें सुनते हैं। इसके साक्ष्य कई ब्रिटिश सर्वेक्षणों में आसानी से मिल सकते हैं। जाति में तो सुरक्षा, सहयोग व परिवार भावना निहित रहती है पर इसकी जगह आज जातियों में हीनता की भावना भर दी गई है और जिसे अब खूब प्रचारित भी किया जा रहा है। देखा जाए तो भारत में जातियों के कारण ही हिंदू समाज पहले इस्लाम और फिर ईसाइयत के धर्मांतरणकारी हमले झेलकर बचा रह सका है।
हमारी हालत पश्चिम एशिया जैसी नहीं हुई जहाँ की सभ्यताएं इस्लाम ने कुछ ही वर्षों में नष्ट कर डालीं थीं। गत सौ सालों से मिशनरियों की खुली नीति दलितों और वनवासियों को मुख्य निशाना बनाने की रही है क्योंकि दूसरी जातियों में उन्हें असफलता ही मिली है। इसीलिए ईसाई मिशनरियों ने ब्राहमणों के विरुद्ध अधिक दुष्प्रचार किया जिससे उन्हें निम्न जातियों का शोषक बताकर खुदको संरक्षक दिखा सकें। मिशनरी संस्थानों में भारतीय इतिहास का विकृत पाठ पढ़ाया जाता रहा है, ताकि ब्राहमण विरोधी भावना बलवती हो सकेI निरंतर ऐसे प्रचारों से बच्चे और युवा इन्हीं झूठी बातों को सच मान लेते हैं। वे नहीं जानते कि हमारे महान कवियों, ज्ञानियों और संतों में हर जाति के लोग रहे हैं। शिक्षा में ब्राहमण विरोध भरना हिंदू विरोध का ही छद्म रूप है जिसे आज सबको समझने की ज़रूरत है। चूंकि ब्राह्मणों ने जबरन धर्मांतरित कराए गए मुस्लिमों, ईसाईयों को वापस हिंदू बनाने के कार्य किये इसलिए भी ईसाई मिशनरियों ने ख़ास तौर पर ब्राह्मणों को निशाने पर लिया।
देश की सुरक्षा को खतरे में डालते ईसाई मिशनरी
भारत में ईसाई मिशनरियां विदेशी पैसों का इस्तेमाल करते हुए पिछले सात दशकों में उत्तर-पूर्व के आदिवासी समाज का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कर चुके हैं। यही खेल मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में भी जारी है। जहाँ इन गतिविधियों का फायदा नक्सली भी उठाते हैं। विदेशी पैसे का धर्मांतरण के लिए इस्तेमाल देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए बड़ी चुनौतियों को जन्म दे रहा है। विकसित पाश्चात्य ईसाई देशों की सरकारें धर्मांध कट्टरपंथी ईसाई मिशनरी तत्वों को धर्म परिवर्तन के नाम पर एशिया और अफ्रीका जैसे देशों को निर्यात करती रहती हैं। देश की सुरक्षा के लिहाज़ से ये इतना खतरनाक है कि जब भारत जैसे देशों में विदेशी चंदे से धर्मांतरण होता है तो धर्मांतरित लोगों के ज़रिए विभिन्न प्रकार की सूचनाएं एकत्रित करने के साथ ही सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने में आसानी होती है। जैसे भारत-रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र से नाखुश कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को अटकाने के लिए वर्षों तक मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर धरना-प्रदर्शन करवाए।
तबके तत्कालीन संप्रग सरकार में मंत्री वी. नारायणस्वामी ने यह आरोप लगाया था कि कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को बंद कराने के लिए तमिलनाडु के एक बिशप को 54 करोड़ रूपए दिए थे। इस मामले में विदेशी चंदा प्राप्त कर रहे चार एनजीओ पर कार्रवाई भी की गई थी। इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण वेदांता द्वारा तूतीकोरीन में लगाए गए स्टारलाइट कॉपर प्लांट का है। इस प्लांट को बंद करवाने में भी चर्च का हाथ माना जाता है। आठ लाख टन सालाना तांबे का उत्पादन करने में सक्षम यह प्लांट अगर बंद न होता तो भारत आज तांबे के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका होता। यह प्लांट कुछ देशों को पसंद नहीं आ रहा था और इसलिए उन्होंने मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर पादरियों द्वारा यह दुष्प्रचार करवाया कि यह प्लांट पूरे शहर को जहरीला बना देगा। आज यह प्लांट 18 सालों से बंद पड़ा है और भारत को तांबे का आयात करवाना पड़ रहा।
दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में मिशनरियों का कार्य और सहज हो चुका है। कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने हिंदू धर्म को नकारने के लिए ब्राह्मणवाद को निशाने पर लिया। वहीं, जातिवादी नेताओं ने अपने वोट बैंक को मुर्ख बनाने हेतु ब्राह्मणों को दुश्मन बनाया। देश की जातियां जो कल तक समाज को जोड़े रखने का कार्य करती थीं, आज कुछ स्वार्थी लोग जातियों के भ्रम जाल में हिंदुओं को फंसाकर अपना मकसद साध रहे और देश को बांटने पर आमादा दिख रहे। देश को गहरे नुकसान से बचाने के लिए विदेशी चंदे पर पूरी तरह से रोक लगाने के साथ ही मिशनरी संगठनों की गतिविधियों पर सख्त पाबंदी समय की ज़रूरत है। अपनी धार्मिक सभाओं में ऐसे संगठनों द्वारा हिंदू धर्म के देवी-देवताओं और प्रतीकों का प्रयोग करने को छल की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और धार्मिक नगरों और साथ ही सामरिक रूप से महत्वपूर्ण ठिकानों के आसपास उनपर कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए क्योंकि धर्मांतरण सामाजिक ताने-बाने को कमज़ोर करने के साथ देश की सुरक्षा के लिए भी एक चुनौती बनता जा रहा है।