देश की संसद को देश के जनतांत्रिक मूल्यों की उम्दा अभिव्यक्ति के रूप में जाना जाता है। संसद के सदस्य राष्ट्रीय संघीय ढांचे के अनुरूप कार्य कर संवैधानिक शक्तियों का जनहित में उपयोग करते हैं। लेकिन इन सब के बीच हैरत की बात ये है कि अपराधिक और ग़लत छवि के लोग संसद की मर्यादा को धूल में धूमिल कर रहे हैं। अब जब नई सदी की शुरुआत में पीएम मोदी के नेतृत्व में देश को नया लोकतंत्र का मंदिर संसद भवन मिलने जा रहा है ऐसे में देश के राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी बनती है कि नए साल में संसद को दोषियों और दागियों से दूर रखें।
राजनीतिक पार्टियों से तो इस संबंध में बात करना चांद पर थूकने जैसा है क्युकी सभी राजनीतिक पार्टियों को ऐसे उम्मीदवार की जरूरत होती है जो चुनाव में सीट जीत कर दे हालाकि ऐसे में देश के सर्वोच्च न्यायालय से ही उम्मीद है कि वो कुछ करे ताकि मंदिर की मर्यादा धूमिल नहीं हो। सुप्रीम कोर्ट कुछ बदला फ़ैसला लेते हुए कुछ दिशा निर्देश जारी करे ताकि संसद की सुचिता बरकरार रहे।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर
आपको बता दें कि हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है और दायर याचिका में कहा गया है कि दो साल से अधिक की सजा पाए अपराधियों पर मात्र छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक लगाने के बजाय उन्हें आजीवन प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। पहले भी विधानसभा और लोकसभा को दागियों से बचाने के लिए कई अथक प्रयास किए हैं हालाकि सभी प्रयास निरर्थक निकले और आज भी आधे से ज्यादा सदस्य दागी हैं।
साल दर साल बढ़ता गया आंकड़ा
देश की राजनीति में बाहुबलियों के आने की परंपरा आज़ादी के बाद से ही शुरू हो गई जब बिहार में पहली बार बूथ लूट की घटना हुई। लेकिन अगर पिछले दशक की बात करें तो 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में 24 प्रतिशत दागी उम्मीदवार सांसद बन कर देश के लोकतंत्र में मंदिर में पहुंचे थे, जबकि 2009 में हुए चुनाव में दागियों की संख्या बढ़ कर 30 प्रतिशत हो गई थी, 2014 में दागियों की संख्या 34 प्रतिशत तो वहीं आखिरी यानी 201९ में हुए लोकसभा चुनाव में दागियों की संख्या बढ़ कर 43 प्रतिशत हो गई। इस संख्या में समय के साथ बढ़ोतरी हो रही है।अगर देश में इसी तरह के दिखावटी प्रतिबंध लगते रहे तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होने चाहिए कि अगले दो दशकों में देश की सांसद पर 75 प्रतिशत का कब्ज़ा दागियों का रहेगा।
सरकारी नौकरी में सजा मिलने के बाद है आजीवन प्रतिबंध का प्रवधान
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि सरकारी कर्मचारियों को सजा होते ही तत्काल प्रभाव से उन्हें अपनी नौकरी से निकाल दिया जाता है और जीवन भर का प्रतिबंध लगा दिया जाता है या फिर ऐसे लोग जिन पर कोई मुक़दमा दायर है तो उन्हें सरकारी नौकरी में प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती है। हालाकि केंद्र सरकार ने इस याचिका के जवाब में कोर्ट में सपथ पत्र दायर किया है और केंद्र सरकार के द्वारा दयार पत्र में कहा गया हैं कि यद्यपि चुने हुए जनप्रतिनिधि भी सरकारी सेवक हैं, परंतु वे किसी आचार संहिता से नियंत्रित नहीं हैं। वे अपने पद की शपथ लेते हैं और उसी से अपनी अंतरात्मा द्वारा नियंत्रित होते हैं।
हालाकि केंद्र सरकार द्वारा दायर शपथ पत्र न्यायिक दृष्टि से कितना कारगर है इसका अनुमान लगाना तो बहुत कठिन है और इसपर कुछ कहना अतिश्योक्ति होगी परन्तु अगर शपथ पत्र की बात करें तो यह बिल्कुल हास्यास्पद लगता है।
कानून का राज भारतीय संविधान का अभिन्न अंग और देश में इसके सबसे बड़े रक्षक देश की सुप्रीम कोर्ट है। अब समय आ गया है कि भारतीय संविधान के सबसे बड़े रक्षक सुप्रीम कोर्ट को आगे कर कुछ शशक्त कानून बनाना चाहिए ताकि देश का सबसे पवित्र स्थल दोषियों और दागियों की जंजीर से मुक्त हो। दागियों का विधान सभा और लोकसभा पर क़ब्ज़े की ही देन है कि आज देश में हर जगह हिंसा होती है क्यूँकि ये अपनी मर्ज़ी से अपराध करवाते हैं और सबूत की कमी के कारण कानून की आंखो में धूल झोंकने में सफल हो जाते हैं। अतः नई सदी की शुरुआत में अब समय आ गया है कि देश के लोकतंत्र को साफ-सुथरा बनाने के लिए संकल्प लेना चाहिए ताकि देश का सबसे पवित्र स्थल संसद की मर्यादा बची रहे।