पुलिस की कार्यशैली से क्यों उठता जा रहा समाज का भरोसा?

यहाँ तक की सुशांत सिंह का मोबाइल फोन पुलिस के पास 25 दिनों तक रहा पर उन्होंने एसएमएस, वाट्सएप संदेश और कॉल डिटेल्स के ज़रिए साक्ष्य जुटाने की भी ज़रूरत नहीं महसूस की। मुंबई पुलिस की कार्यशैली पर जब देश की जनता सवाल उठाने लगी तब फिर बीच में सुप्रीम कोर्ट को आना पड़ा और ऐसे इस मामले की जाँच की ज़िम्मेदारी अब सीबीआई को दी गई है।

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हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस और बलरामपुर में जो जघन्य अपराध हुए हैं उससे हम सभी वाकिफ हैं। ऐसे अपराध हमारे समाज में लड़कियों की दुर्दशा की कहानी बयां कर देते हैं। इस तरह के कांड भर्त्सना के सभी शब्दों को बेमानी करते जा रहे हैं। अपराधी भी आज जैसे आलसी पुलिस-प्रशासन से पूरी तरह भयमुक्त हो चुके हैं। पुलिस राज्य के अधीन रहती है, ऐसे में ऐसी घटनाओं से राज्य सरकारें भी कठघरे में आ जाती हैं। लड़कियों की सुरक्षा तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब प्रशासन उचित रूप से कार्य करेगा और दोषियों को पकड़कर तुरंत सलाखों के पीछे करेगा। दोषियों पर त्वरित कार्रवाई से ही अपराध जगत के अंदर खौफ पैदा होगा।

आज देश के कोने-कोने से जिस तरह मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार और उनकी नृशंस हत्या की खबरें आ रही हैं, उससे पूरा देश सदमे में है। हर एक माँ-बाप के मन में यही सवाल उठ रहा कि वे अपनी बेटियों को इन दरिंदों से कैसे बचाएं? बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने पर देश में फांसी तक का प्रावधान है पर इसके बावजूद भी ऐसे अपराधों में कमी क्यों नहीं आ रही? दरअसल, बलात्कार को देखने का हमारा नज़रिया ही गलत है। हम स्त्रियों के प्रति इस क्रूरतम व्यवहार को एक अपराध के तौर पर देखते हैं, जबकि यह अपराध से ज्यादा मानसिक विकृति और भावनात्मक विचलन है। वहीं, आज के इस इंटरनेट युग में स्त्रियों पर होते इन घिनौने कृत्यों की मुख्य वजहों में से एक पोर्न फिल्में भी हैं जो आज सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर हैं। ऐसे में अभिभावकों को अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने के साथ ही सरकार से ये मांग भी करनी चाहिए कि इंटरनेट पर पड़ी पोर्न साइट्स के अलावा आजकल आ रहीं ऐसी तमाम अश्लील वेब सीरीज़ पर प्रतिबंध लगे।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर पर्दा डालती मुंबई पुलिस

देश के अलग-अलग हिस्सों से जिस तरह स्त्रियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार होने की खबरें आए दिन दिखती हैं उससे पुलिस की अक्षमता ही उजागर होती है। अपराध को रोक पाने में पुलिस की असमर्थता ही अपराधियों को ऐसे कृत्य करने का हौसला देती हैं। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत पे जिस तरह मुंबई पुलिस ने लीपापोती की वो भी शर्मनाक है। उनकी संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई मौत आज एक पहेली बन चुकी है और इसमें सबसे बड़ा दोष मुंबई पुलिस का है जिसने आपराधिक अनुसंधान शुरू होने से पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है। गौरतलब है कि यह कहने से पहले उसने पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आने तक का भी इंतज़ार नहीं किया।

दंड प्रक्रिया संहिता 174 के अंतर्गत उसने 65 से ज़्यादा दिनों तक जिस तरह इस मामले की जांच की, उसका कोई औचित्य नहीं था। मुंबई पुलिस ने फिल्म जगत की तमाम हस्तियों से पूछताछ की पर सुशांत सिंह के घर रहने वाले प्रमुख व्यक्तियों से पूछताछ करना ज़रूरी नहीं समझा। एनसीबी जो आज बॉलीवुड में व्याप्त ड्रग कल्चर की पड़ताल कर रही है, सुशांत सिंह की मौत के बाद उन्होंने मादक पदार्थों की प्राप्ति और सेवन के बारे में कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक की सुशांत सिंह का मोबाइल फोन पुलिस के पास 25 दिनों तक रहा पर उसने एसएमएस, वाट्सएप संदेश और कॉल डिटेल्स के ज़रिए साक्ष्य जुटाने की भी ज़रूरत नहीं महसूस की। मुंबई पुलिस की कार्यशैली पर जब देश की जनता सवाल उठाने लगी तब फिर बीच में सुप्रीम कोर्ट को आना पड़ा और ऐसे इस मामले की जाँच की ज़िम्मेदारी अब सीबीआई को दी गई है।

पालघर में हुई साधुओं की मौत का तमाशा देखती रही पुलिस

महाराष्ट्र पुलिस की आलोचनाओं का सिलसिला सिर्फ सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर पर्दा डालने तक ही सीमित नहीं है। महाराष्ट्र के पालघर जिले में जिस तरह से दो साधुओं और उनके ड्राइवर की उग्र भीड़ द्वारा नृशंस हत्या की गई और वो भी पुलिस के सामने, उससे पूरे देश में पुलिस की नकारात्मक छवि बन गई। इसी तरह की घटना महाराष्ट्र में 24 मई को पुनः घटित हुई जब नांदेड़ में शिवाचार्य नामक साधु की हत्या की गई। इसके बाद 29 मई को भी पालघर में एक साधु पर जानलेवा हमला हुआ। इन मामलों से स्पष्ट है कि स्थानीय पुलिस का अभिसूचना तंत्र या तो बिल्कुल निष्क्रिय था या पुलिस किन्हीं कारणों से इस दिशा में क्रियाशील नहीं हो पा रही थी।

दिल्ली और बेंगलुरु में हुई हिंसा में पुलिस की निष्क्रियता उजागर

इसी साल फरवरी में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग के साथ-साथ कई अन्य स्थानों पर चले उग्र प्रदर्शनों के बाद एकाएक ये प्रदर्शन सांप्रदायिक दंगों में बदल गए। मुख्यतः पूर्वी दिल्ली में हुए इन दंगों में तकरीबन 50 लोग मारे गए। कई महीनों से चले आ रहे शाहीन बाग़ के इन प्रदर्शनों से दिल्ली पुलिस अंजान बने रहने का ढोंग करती रही और कोई पूर्व सूचना भी हासिल नहीं कर पाई जिससे समय रहते इन उग्र प्रदर्शनों को रोका जा सकता और फिर ऐसे दंगे की परिपाटी ही नहीं बन पाती। इसी तरह बेंगलूरू में सोशल मीडिया की एक पोस्ट को लेकर भड़की हिंसा ने भी बेंगलुरु पुलिस की निष्क्रियता को सबके सामने ला दिया। उक्त मामले पुलिस की उदासीनता के कुछ उदाहरण मात्र हैं, अन्यथा देश का ऐसा कोई राज्य नहीं होगा जहाँ आए दिन कानून-व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाएं न प्रकाश में आती हों। इन सभी घटनाओं में स्थानीय पुलिस ने वह नहीं किया, जो उससे अपेक्षा की जाती है।

ज़ीरो टॉलरेंस को ज़मीनी स्तर पर लाने की है आवश्यकता

जब कभी पुलिस की जांच पर सवाल उठते हैं अथवा कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है, तो उसका मूल कारण पुलिस के पास वांछित अधिसूचना का अभाव होता है या फिर संज्ञान लेकर ज़रूरी कार्रवाई करने को लेकर बरती जाने वाली उदासीनता। ऐसी स्थिति किसी भी पुलिस बल और शासन-प्रशासन के लिए आत्मघात से कम नहीं है। आखिर क्या कारण है कि दंगाई निडर होकर निरंतर जनजीवन अस्त-व्यस्त कर रहे हैं, राष्ट्र विरोधी नारे लगा रहे हैं और राष्ट्र मूकदर्शक बनकर बैठा है। आज अपराधियों को समय रहते यह कड़ा संदेश देने की ज़रूरत है कि उनकी अवांछित, राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई की जाएगी। पुलिस को ज़ीरो टॉलरेंस को ज़मीनी स्तर पर लाने की आवश्यकता है।

यह संतोष की बात है कि उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई दंगाइयों से करने संबंधी अधिनियम लागू कर दिया गया है। बेंगलुरु में हुई हिंसा के बाद इसी कानून के तहत दोषियों को सार्वजानिक संपत्ति के हुए नुकसान की भरपाई करने को कहा गया है। पहले उत्तर प्रदेश और फिर कर्नाटक के बाद अब अन्य प्रदेशों ने भी इस प्रकार का अधिनियम लाने की बात कही है। उम्मीद है कि इस प्रकार का अधिनियम पूरे देश में लागू होगा। जब अपराधी बेखौफ होकर विचरण करते हैं या कानून अपने हाथ में लेते हैं, तब आम जनता में यही धारणा बनती है कि शासन-प्रशासन इनके सामने बेबस है। इस धारणा को आज तत्काल रूप से बदलने की आवश्यकता है। तभी हमारे समाज की बेटियां खुल के सपने देख पाएंगी और कोई धरना-प्रदर्शन की आड़ में दंगे भड़काने का कार्य नहीं करेगा। इसके लिए कड़े अधिनियम, शीघ्र विवेचना, त्वरित न्यायिक प्रक्रिया एवं कठोर दंड आवश्यक है।

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