दलित उत्पीड़न मामले में नंबर एक है राजस्थान, फिर भी कुछ लोगों को चाहिए योगी आदित्यनाथ का इस्तीफा

आजकल राजनीतिक दल किसी मामले पर संवेदना जाहिर करने के लिए पहले यह देखते हैं कि इससे विरोधी दल को लांछित करने में मदद मिलेगी या नहीं? उन्हें पीड़ित परिवार की कोई फिक्र नहीं होती बल्कि वे तो इस ताक में रहते हैं कि कैसे उक्त मामले की आड़ लेकर दल विशेष को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है? ऐसे में ज़्यादातर मामलों में ऐसे राजनेता यही जाहिर करने में लगे रहते हैं कि अत्याचार तो विरोधी दल के इशारे पर ही हुआ है।

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दादरी में अखलाक की हत्या और हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद हाथरस कांड नेताओं का नया ‘तीर्थस्थल’ बन चुका है। हाथरस के पीड़ित परिवार को सांत्वना देने और उसके लिए न्याय की गुहार लगाते हुए तमाम नेतागण इस शहर की ओर बिलकुल वैसे ही दौड़ लगा रहे हैं जैसे वे दादरी में गोहत्या के संदेह में मारे गए अखलाक और हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या करने के बाद वहाँ दौड़ कर गए थे। तब सवाल उठता है कि हमारे कुछ नेताओं की संवेदना कुछ खास मामलों में ही क्यों दिखाई देती है? आज ये सवाल नेताओं के साथ-साथ गैर-राजनीतिक संगठनों और मीडिया संस्थानों से भी पूछा जाना चाहिए।

टीवी चैनलों के पास शायद इस सवाल का जवाब यह हो कि उन्हें जिस खबर पर सबसे ज़्यादा टीआरपी मिलने की गुंजाइश दिखती है, वे उसी खबर पर प्रमुखता से रात-दिन रिपोर्टिंग करते हैं। वहीं, इस सवाल का जवाब नेतागण ये देकर कर सकते हैं कि उनकी संवेदना उन्हें ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर करती है। जो जवाब ऐसे नेतागण, मीडिया संस्थान और गैर-राजनीतिक संगठन नहीं देंगे, वह यह होगा कि हमारा मकसद तो केवल मौके का फायदा उठाना है, इसपर खूब प्रचार करना है और साथ ही देश को यह संदेश देना है कि हम ही हैं दलित, वंचित और पीड़ित परिवार के सच्चे हिमायती।

दलित उत्पीड़न के मामले में राजस्थान शीर्ष पर

आजकल राजनीतिक दल किसी मामले पर संवेदना जाहिर करने के लिए पहले यह देखते हैं कि इससे विरोधी दल को लांछित करने में मदद मिलेगी या नहीं? उन्हें पीड़ित परिवार की कोई फिक्र नहीं होती बल्कि वे तो इस ताक में रहते हैं कि कैसे उक्त मामले की आड़ लेकर दल विशेष को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है? ऐसे में ज़्यादातर मामलों में ऐसे राजनेता यही जाहिर करने में लगे रहते हैं कि अत्याचार तो विरोधी दल के इशारे पर ही हुआ है। हाथरस कांड में भी कुछ ऐसा ही साबित करने की कोशिश की जा रही है। यही कार्य दादरी में अखलाक की मौत पर और फिर हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद भी किया गया था।

इस घनघोर राजनीति का नतीजा यह है कि अभी हाल ही में प्रकाशित राष्ट्रिय अपराध ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश में दलित उत्पीड़न के मामलों में राजस्थान पहले पायदान पर है, लेकिन फिलहाल वहाँ कांग्रेस की सरकार होने से न तो नेतागण और न ही सस्ती राजनीति दिखाकर टीआरपी बटोरते टीवी संस्थान राजस्थान में आये दिन हो रहे दलित उत्पीड़न के खिलाफ अपनी रिपोर्टिंग करते पाए जाते हैं। वहीं, मौका और माहौल देखकर राजनीति करने वाले ऐसे राजनेता हाथरस कांड हो जाने के बाद योगी आदित्यनाथ का इस्तीफा मांगने लगते हैं। जब तक ऐसी गंदी और घटिया राजनीति होती रहेगी और तथाकथित संवेदना के टुकड़े-टुकड़े किये जाते रहेंगे, तब तक दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर लगाम लगने वाला नहीं है, फिर भले ही कानूनों को कितना ही कठोर बना लिया जाए।

दुष्कर्म – एक सामाजिक अपराध

दुष्कर्म के बढ़ते मामलों को देखकर अक्सर ये कहा जाता है कि ऐसी घटनाएं तो पहले भी हुआ करती थीं पर हाल-फिलहाल में बस उनकी रिपोर्टिंग ज़्यादा हो रही है। इसमें कुछ हद तक सच्चाई हो सकती है, लेकिन इस सच का दूसरा पहलू यह भी है कि दुष्कर्म के मामलों में गिरावट आज भी नहीं आ सकी है। सवाल ये उठता है कि आखिर इस ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता? दुष्कर्म एक सामाजिक अपराध है, लेकिन मौजूदा समय में इन कृत्यों पर सिर्फ सस्ती राजनीति ही देखने को मिलती है। वहीं, अधिकतर लोग ये समझ ही नहीं पाते कि इन अपराधों में संलिप्त लोगों की सोच ही उन्हें ऐसे अपराध करने की हिम्मत दे पाती है। चूंकि महिलाओं के प्रति लोगों की सोच बदलने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती, ऐसे में लोगों को जो सबसे आसान लगता है वो है कि इसपर कठोर कानून बनाने से इन अपराधों में कमी आ जाने की राय देना। हकीकत से कोसों दूर ऐसी नसीहतें अब किसी काम की नहीं रह गईं हैं। कोई इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि देश को झकझोरने वाले दिल्ली के निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानून हद से ज़्यादा कठोर कर देने के बावजूद भी आज कोई नतीजा मिलता नहीं दिख रहा।

मौके की ताक में रहने वाली राजनीति

राजनीतिक दलों का राजस्थान की कांग्रेस सरकार में लगातार हो रहे दलित उत्पीड़न के मामलों पर चुप्पी साधे रहना और उत्तर प्रदेश में भाजपा शासन में हुए हाथरस जैसे मामलों पर सदन से सड़क तक मार्च निकालना सिर्फ मौकापरस्त राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। इस विषैली राजनीति का नतीजा ये है कि उस विषाक्त मानसिकता पर प्रहार नहीं हो पा रहा, जिसके चलते ऐसी घटनाएं घटित होती हैं। यह एक तथ्य है कि दलित उत्पीड़न अथवा भीड़ की हिंसा के मामले में कुछ खास घटनाओं पर तो देश में खूब शोर मचाया गया, लेकिन और भी जगह वैसी ही या उससे भी चिंताजनक मामलों पर चुप्पी साध ली गई। अपने राजनीतिक हित और नैरेटिव को सही साबित करने के फेर में ऐसे राजनेता किसी भी हद तक आज जाते हुए देखे जा सकते हैं।

राजनीतिक दलों के लिए दलित उत्पीड़न के मामलों में ऐसा मनमाना निष्कर्ष निकाला जाना तो बहुत आसान है कि शासन-प्रशासन संवेदनशील नहीं, लेकिन इस तरह की घटनाओं के मूल में तो समाज की वो मानसिकता है जिसके चलते पिछड़े वर्गों को उचित सम्मान नहीं दिया जाता और ऐसे में उन्हें आसान शिकार माना जाता है। अब ज़रूरत है इस मानसिकता को निशाने पर लेने की है, तब हमें राजनेताओं द्वारा यह बताने की कोशिश की जाती है कि सत्तारूढ़ दल अथवा उसका प्रशासन दलितों के हित की चिंता नहीं कर रहा है। अमूमन इसे साबित करने में मीडिया का एक हिस्सा भी अतिरिक्त मेहनत करता दिखाई देता है।

वे सत्तारूढ़ दलों को पिछड़े वर्गों का विरोधी करार देने में तनिक भी देर नहीं लगाते। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा वंचित वर्गों में अलगाव की भावना पैदा करने, हिंसा फैलाने और विभिन्न वर्गों में वैमनस्य बढ़ाने का काम आज धड़ल्ले से किया जा रहा है। ऐसे में यह एक तरह की खतरनाक राजनीति बन चुकी है जिसमें झूठे आरोपों के बल पर शहर भी जलाए जा सकते हैं और व्यवस्था को भी ठप किया जा सकता है। पता नहीं इस घटिया राजनीति पर लगाम कैसे लगेगी पर इसका रास्ता पुलिस और न्यायिक सुधार के ज़रिये ही मुमकिन होता दिख रहा है। समय पर सही न्याय इस तरह की राजनीति पर निश्चित ही लगाम लगाने का कार्य करेगा।

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