कोरोना वायरस के संक्रमण से आज एक वैश्विक संकट उत्पन्न हो गया है जिससे भारत भी अछूता नहीं रहा है। वैश्विक स्तर पर जिस हिसाब से इसकी रोकथाम के लिए टीके बनाने का प्रयास किया जा रहा उससे ये तो साफ है कि आज की ये महामारी कल की बीमारी कहलाई जाएगी जैसे प्लेग, टीबी या चेचक इत्यादि। कोविड-19 ने मनुष्य के सामने उसके भविष्य को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए हैं, जिन पर मानव समाज को चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। वैसे भी आज मनुष्य के उस दंभ को गहरा झटका लगा है कि उसने प्रकृति के सारे रहस्यों को समझ लिया है व इन पर उसका नियंत्रण हो गया है। कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना ने मनुष्य के ज्ञान और उसकी समझ की अपूर्णता को सामने ला दिया है। विभिन्न देशों की सरकारें, सुरक्षा तंत्र व अनेकों वैज्ञानिक अनुसंधान इस वायरस के आगे आज जैसे अर्थहीन मालूम पड़ रहे हैं। ऐसे समय में आत्मशक्ति और आध्यात्मिक अंतःकरण संपन्न नेतृत्व ही विश्वभर में उम्मीदों का नया सवेरा ला सकता है।
ज्ञान एवं अध्यात्म की भूमि- भारत
जबतक मानव सभ्यता पृथ्वी पर विद्यमान है तब तक उसके विकास का क्रम जारी रहेगा। इसी विकास यात्रा में उसके लिए प्रकृति के रहस्यों को समझने के प्रयास भी जारी रहेंगे। हालांकि प्राचीन काल में भारत के ऋषियों और साधकों ने इन प्रयासों को नियमबद्ध भी किया था जो आज हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं हैं। ज्ञान, बुद्धि और विवेक मनुष्य को पीढ़ियों की असीमित और लगातार साधना के द्वारा ही हासिल हो पाता है। ज्ञान की कोई सीमा भी नहीं कि जहाँ पहुंचकर कहा जा सके कि वही सीमांत है। भारत के ऋषियों का भी इस बात पर अधिक ज़ोर रहा है कि ज्ञान एवं कौशल का उपयोग केवल जनहित में ही होना चाहिए। हिंदू वैदिक संस्कृति के अनुसार प्रकृति के प्रति सम्मान व आदरभाव रखते हुए ही मनुष्य को उसके संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। इसी दर्शन को समझते हुए महात्मा गांधी ने भी कहा है कि भारत अपने मूलरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का उल्लेख करते हुए गांधी जी का ये भी कहना था कि यहाँ के लोगों द्वारा जिन तरीकों के माध्यम से आत्मशुद्धि के जैसे प्रयत्न किए जाते रहे हैं, वैसा दूसरा उदाहरण कहीं और नहीं मिलता। इसी चिंतन के कारण पूरे विश्व ने ज्ञान एवं अध्यात्म के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता को स्वीकारा है।
भारत की आध्यात्मिक जीवनशैली
भारत की कालजयी सनातन वैदिक संस्कृति प्रकृति-पर्यावरण के सर्वथा अनुकूल है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत की आध्यात्मिक जीवनशैली विश्व को ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण जन्य अन्य संकटों से भी उबार सकती है। लेकिन आज के इस भौतिकतावादी युग में भारत अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को छोड़कर पश्चिम की भोगवादी संस्कृति की नकल करने में लगा हुआ है और प्रकृति का सम्मान करना जैसे भूल ही गया है। हर प्रकार की विविधता को स्वीकार करने वाला एवं प्रकृति के लगभग हर अंग में दैवत्व देखने वाला भारत जैसा देश कोई दूसरा इस विश्व में दिखता ही नहीं। भारत का जनमानस परसेवा को सबसे बड़ा पुन्य मानता है। वह तो ‘यह मेरा-वह तेरा’ से ऊंचे उठकर वसुधैव कुटुंबकम को हज़ारों साल पहले समझ चुका है। यदि इस नई पीढ़ी को प्रारंभ से ही मानव मूल्यों, प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की श्रेष्टता से अवगत करवाया जाए तो भारत फिर एकबार मानव-प्रकृति के संबंधों की ऐसी मिसाल कायम कर सकता है जिसकी विश्व को ज़रूरत है।
आत्मनिर्भर बने भारत
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना संकट के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक सशक्त नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे और भारत के 130 करोड़ लोगों को उन्होंने इस वायरस को परास्त करने के लिए एकजुट कर दिया। इसी का नतीजा है कि आज जब विकसित देशों में भी कोरोना अपना कहर बरपा रहा तब भारत उन देशों की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति में है। मात्र सरकारी उत्तरदायित्व के निर्वहन की परंपरागत कार्यशैली के ठीक उलट प्रधानमंत्री मोदी ने संयम एवं उत्साहपूर्वक राष्ट्र को मानसिक संबल प्रदान किया है। साथ ही वे विभिन्न रीति-नीति एवं परंपराओं से परिपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में भी सफल हुए हैं। हाल ही में देश के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने कोरोना के इस संकटकाल को अवसर के रूप में देखने के लिए भारतवासियों को प्रेरित किया। देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए ये आवश्यक है कि देश का हर नागरिक अपने कर्तव्यों का सही से पालन करे व जितना हो सके उतना विदेशी सामानों का बहिष्कार करे। जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापानियों द्वारा अमेरिकी सामानों का बहिष्कार किया जा सकता है तब अपनी स्वदेशी कंपनियों को विश्व स्तर पर नाम कमाने के लिए हम भी विदेशी कम्पनियों का बहिष्कार भला क्यों नहीं कर सकते? हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि देश के हित में ही हम सबका हित निहित है।
दुनिया को रास्ता दिखाए भारत
कोरोना वायरस के इस संकटकाल के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में भी अमूल-चूल परिवर्तन देखने में आ सकता है। ऐसे में भारत के लिए ये किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं जब वो अपनी कार्यकुशलता का परिचय देकर विश्व में अपनी धाक जमा सकता है। अर्नाल्ड टायनबी जैसे अनेक विद्वान बहुत पहले ही कह चुके हैं कि वैश्विक विनाश से बचने का रास्ता केवल भारत ही दिखा सकता है। ऐसे में भारत को अपनी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए और कोरोना के इस काल में विश्व को नया रास्ता दिखाना चाहिए। हिंदू वैदिक जीवन पद्धति प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब उपयोग करने की बात नहीं बल्कि उसे समष्टि के लिए उपयोगी बनाने की बात करती है यानी कि प्रकृति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले समस्त कारकों की देवता के रूप में आराधना करना ताकि वे सुरक्षित एवं संरक्षित रहे।
वक्त है नया इतिहास रचने का
आज कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारतीय रीति-नीति और परंपरा का अनुसरण करते नज़र आ रहे हैं जिससे वैदिक सनातन हिंदू संस्कृति की सार्वभौमिकता उजागर हो रही है। भारतीय संस्कृति व परंपराएं प्रकृति के साथ एकात्म करती दिखतीं हैं। वहीं, कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बिना अध्ययन एवं अनुभव के इन आध्यात्मिक रहस्यों को पाखंड व अंधविश्वास समझने की भूल कर बैठते हैं। इसी तरह योग को भी विदेशी पहले गंभीरता से नहीं लिया करते थे लेकिन निरंतर भारत के प्रयासों के द्वारा आज समूचा विश्व योगा के महत्व को समझ चुका है और इसीलिए आज अन्तराष्ट्रीय योगा दिवस भी मनाया जाने लगा है। इसी तरह संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता भी प्रमाणित हो चुकी है कि ये कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है। ऐसे में हमें अपनी हीनता को त्याग कर पूरे गौरव के साथ देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए। वक्त है मानव के मस्तिष्क में मानवता के बीज बोने का और नया इतिहास रचने का।