किसी भी समस्या का हल सिर्फ बातचीत और समझौते की मदद से ही निकाला जा सकता है। लेकिन अब अगर किसी मुद्दे पर बात करने के लिये कोई पक्ष तैयार ही ना हो तो फिर उस मुद्दे का समाधान कैसे किया जा सकता है? किसान बिल के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है।।सरकार कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन किसान संगठन इस मुद्दे पर सरकार से बात भी नहीं करना चाहते हैं। सरकार किसानों से बात कर के कृषि बिल की सारी खामियों को दूर करने को तैयार हैं, लेकिन किसान संगठन किसी भी हालत में सरकार से बात करने को तैयार ही नहीं हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि किसान आंदोलन का फायदा विरोधी राजनीतिक पार्टियां भी खूब उठा रही हैं। किसान आंदोलन की आड़ में विपक्षी पार्टियां भी अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकती नजर आ रही हैं। कभी किसानों की सुध भी नहीं लेने वाली विपक्षी पार्टियां सिर्फ अपने लाभ के लिये किसानों के साथ खड़े होने का ढोंग कर रही हैं। इन्हें किसानों से कोई लेना देना नहीं है, इनका मकसद सिर्फ सरकार की छवि को धूमिल करना है।
पिछले 70 वर्षों से किसान रहा है उपेक्षित
भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसान हमारे अन्नदाता हैं। लेकिन ये अफसोस की बात है कि आजादी के बाद पिछले 74 सालों में भारत के किसानो की आय महज 21 गुने ही बढ़ा पायी है। जबकि अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगो की आय में औसत बढ़ोत्तरी 100 गुने से भी ज़्यादा है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार ही कृषि है। उसके बाद भी किसानों की ऐसी दुर्दशा चिंता का विषय है। पिछले 70 सालों में देश सरकार ने देश को समृद्धशाली बनाने के लिए हर क्षेत्र में प्रयास किया। लेकिन हमारे किसानों की हमेशा अनदेखी की गई है। हर साल हज़ारों किसान मुफ़लिसी के चलते आत्महत्या कर लेते हैं।
सत्तारूढ़ बीजेपी ने किसानों के दुख और दर्द को समझा। हमारे अन्नदाता के कल्याण के लिए ही सरकार कृषि बिल लेकर आयी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कृषि बिल लागू होने के बाद हमारे किसानों की स्थिति में समुचित सुधार देखने को मिलेगा। कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की व्यवस्था देश के किसानों के लिये अमृत का काम करेगा। सरकार इस बिल के जरिये किसानों को एक आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने का सपना बुन रही है।
गलतफहमी का हल सिर्फ वार्ता से सम्भव
किसानों में इस बिल को लेकर कुछ असमंजस की स्थिति है। ऐसे में खासतौर से पंजाब और हरियाणा के किसान इस बिल के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रदर्शन करना ठीक है, भारत एक लोकतांत्रिक देश है, और यहाँ पर हर किसी को अपनी माँग रखने का हक है। कृषि कानून में अगर कोई कमी है तो सरकार उसे दूर करने के लिये हर तरह से तैयार है। लेकिन इसके लिए किसान संगठनों को सरकार से वार्ता कर के अपना पक्ष सामने रखने की जरूरत है। लेकिन किसान संगठन किसी भी हालत में सरकार से वार्ता करने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में भला उनकी समस्या का समाधान कैसे किया जा सकेगा..? अब सम्पूर्ण कृषि बिल को तो वापस लेना उचित नहीं है क्योंकि ये मामला सिर्फ पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसानों का नहीं बल्कि देश भर के उन किसानों का भी है जिनके लिए कृषि मात्र पेट भरने का अधिकार है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि किसान संगठनों की आड़ में विभिन्न राजनीतिक पार्टियां भी अपना दाँव खेल रही हैं। जिस तरह से किसान आंदोलन में हिंसा और अराजकता देखने को मिल रही है, उससे साफ जाहिर है कि इसमें राजनीतिक पार्टियों के उपद्रवी भी शामिल हो चुके हैं। जो कि किसान आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। किसानों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से हो। किसानों के इस आंदोलन का लाभ राजनैतिक पार्टियां ना ले सकें।
अड़ियल रवैया छोड़कर किसान संगठनों को सरकार से वार्ता के लिए आगे आना चाहिए
इसके साथ ही समस्या का हल निकालने के लिए किसान नेताओ को अपना अड़ियल रवैया छोड़कर सरकार से वार्ता करने के लिए आगे आना चाहिए। अगर कृषि बिल में कोई कमी है तो उससे सरकार को अवगत कराना चाहिए और उस कमी को दूर करने के लिए अवाज उठानी चाहिए। इस तरह से विपक्षी पार्टियों के बहकावे में आकर आंदोलन के नाम पर हिंसा और अराजकता कतई स्वीकार्य नहीं है। इसमें किसानों की ही क्षति है, उन अन्नदाताओं की ज्यादा क्षति है जो कृषि से ही अपना पेट पालते हैं। हर समस्या का हल वार्ता में ही है, ये बात किसानों को जल्द से जल्द समझ लेना चाहिए।