कैसे मानसून दे सकता है देश की अर्थव्यवस्था को सुकून?

इस साल मानसून समय पर है और सामान्य है। मानसून की ये तस्वीर देश और देश के लोगों के लिए बेहद खास होने वाली है। इस मानसून हमारी तैयारी ऐसी हो कि हम हर एक बूंद को सहेजें और देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने में अपना अमूल्य योगदान दें।

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भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी.सुब्बाराव ने मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए एक बार कहा था कि भारत का जीवन कल्याण मानसून के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा था कि खुद उनके करियर, उनके जीवन स्तर और उनकी मौद्रिक नीति, सबकुछ मानसून के रुख पर निर्भर करती है। अब जबकि मानसून तेज़ी से देश में आगे बढ़ रहा है तो देश को पिछले वर्षों से कहीं अधिक सतर्कता के साथ तैयार हो जाना चाहिए। कोरोना महामारी के इस विकट समय में अच्छे मानसून की खबर सुकून देने वाली है।

यह इस संकट से उबरने का एक अच्छा अवसर खुदमें समेटे हुए है। इस साल मानसूनी बारिश अच्छी होने के अनुमान के बीच खेती-किसानी देश की अर्थव्यवस्था का आधार बनती दिख रही है। इस मानसून का बेहतर लाभ उठाने के लिए हमारी तैयारी ऐसी हो कि बरसात की एक-एक बूंद जहाँ भी बरसे उसे वहीं एकत्रित व संरक्षित किया जाए। यह कार्य प्रत्येक व्यक्ति को करने की ज़रूरत है। आपातकाल में पारंपरिक पेशा और प्रकृति ही हमारी रक्षक बन सकती है। ऐसे में कोरोना महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था से लेकर जल संकट का तारणहार बनने वाले इस मानसून की महिमा की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

जीवन आधार है कृषि

कोरोना महामारी से त्रस्त अर्थव्यवस्था के निराशाजनक वातावरण में कोई उत्साहजनक बात है तो वह है अकेले कृषि क्षेत्र से। कोविड-19 महामारी से जहाँ देश के तमाम क्षेत्रों की नकारात्मक या न्यूनतम वृद्धि दर रही है, वहीं कृषि और उससे जुड़े अन्य क्षेत्र इससे अछूते रहे हैं। जब देश की अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर 3.1 फीसद के न्यूनतम स्तर पर रही हो और वहीं कृषि क्षेत्र ने 5.9 फीसद की ऐतिहासिक वृद्धि दर हासिल की हो, तो सबकी उम्मीदें इसी पर टिक जाती हैं। अब अच्छे मानसून की भविष्यवाणी से भी इस क्षेत्र से मिलने वाले योगदान के प्रति नवीन आशा का संचार हुआ है।

तमाम अध्ययनों में ये बात सामने आ चुकी है कि अच्छे मानसून के चलते ग्रामीण क्षेत्र की आय में इजाफा होता है। आज हमारे देश की कुल मांग में 45 फीसद हिस्सेदारी ग्रामीण क्षेत्र से होती है। ऐसे में यही क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर ला सकता है। मांग बढ़ेगी तो आपूर्ति के लिए उद्योगों का पहिया घूमने लगेगा। उद्योग चलेंगे तो लोगों को रोज़गार मिलेंगे और समग्र आय में इजाफा होगा। मांग और पूर्ति के संतुलित चक्र से बाज़ार भी नई ऊंचाइयां छुएगा। मानसून के इस तात्कालिक लाभ के अलावा दूरगामी प्रभाव का ज़्यादा असर है। ज़्यादा बारिश से धरती के अंदर गहराई में नमी रहती है जिसका असर गेहूं की बुआई के दौरान भी रहता है। नदी, ताल, पोखर में जमा पानी रिस-रिसकर भूगर्भ जल को बढ़ाता है जिसका लाभ हमें साल भर मिलता है। हमें ज़रूरत है बारिश के पानी को सहेजने की। इसे बहकर समुद्र में बेकार न जाने दें।

बारिश की हर बूंद है सहेजने योग्य

कोरोना महामारी के कारण देश और दुनिया के इस बदले परिदृश्य में हमें जल संरक्षण की ऐसी व्यवस्थाएं अपनानी होंगी जिनसे गाँव के पानी को गाँव में व खेत के पानी को खेत में ही रोक दिया जाए। हमें गाँव व खेत के सभी तालाबों को इस लायक बनाना होगा कि उनमें एकत्र होने वाला पानी संरक्षित रह सके। इसी के साथ तालाबों के आसपास का पानी भी उनमें आकर एकत्र हो सके, इसके लिए नालियों को दुरुस्त करना होगा। खेत तालाबों की भूमिका इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि जहाँ भू-जल स्तर अधिक गहराई में चला गया है वहाँ सिंचाई का साधन या तो वर्षा है या फिर वर्षा के समय खेत तालाब में एकत्र किया गया वर्षाजल।

इसके तहत खेत तालाबों को सुदृढ़ करना अधिक आवश्यक है। खेतों की मेड़बंदी भी वर्षाजल को खेतों में अधिक समय तक रोकने का बेहतर उपाय है, इसके लिए नीति आयोग द्वारा चुने गए उत्तर प्रदेश के जल गाँव ‘जखनी’ का मॉडल (हर खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़) सभी गाँवों में अपनाना होगाI कोरोना महामारी के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में लाखों की तादाद में दूसरे राज्यों से पलायन कर अपने गाँव लौटे हैं। सरकार द्वारा मनरेगा योजना उनको रोजगार देने की पहल कर रही है। इस कदम के तहत गाँव पहुंचे कामगारों से तालाबों को गहरा करने, उनकी मरम्मत करने के साथ नए निर्माण कार्यों का काम प्रमुखता से कराया जा रहा है। इसका फायदा बारिश की बूंदों को सहेजने में मिलेगा। जल संरक्षण से उनके लिए रोजगार के नए अवसर तो उपलब्ध होंगे ही साथ ही बरसात की बूंदों को सहेजने की व्यवस्था भी बन जाएगी।

इजराइल से सीखें सिंचाई

आज देश की जीडीपी में खेती की 17 फीसद हिस्सेदारी है। पंजाब देश के चावल उत्पादन में 35 फीसद और गेहूं उत्पादन में 60 फीसद की हिस्सेदारी रखता है। वहाँ भूजल स्तर हर साल आधे मीटर की दर से गिर रहा है। फिलहाल देश में ज्यादातार सिंचाई डूब व्यवस्था के तहत की जाती है जिसमें खेत को पानी से लबालब भर दिया जाता है जो गैरज़रूरी प्रक्रिया है। पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने के लिए आज हमें इजराइल की तर्ज पर ड्रिप और स्प्रिंकलर तकनीक को व्यापक स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता है। तभी हम ‘पर ड्रॉप, मोर क्रॉप’ को चरितार्थ कर पाएंगे। इसके साथ ही हमें कम पानी वाली फसलों और प्रजातियों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दरकार है। देखा गया है कि एक किग्रा चावल पैदा करने में 4500 लीटर पानी खर्च होता है जबकि गेहूं के लिए यह आंकड़ा 2000 लीटर के आसपास रहता है।

पानी और आर्थिक विकास

कुछ साल पहले फिक्की के एक सर्वे के अनुसार देश की 60 फीसद कंपनियों का मानना है कि जल संकट ने उनके कारोबार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। इस सर्वे को पिछले साल चेन्नई की कंपनियों द्वारा उनके कर्मचारियों को दिए गए दिशानिर्देश से जोड़कर देखने की आवश्यकता है। जिसमें कहा गया है कि सभी कर्मचारी अपने घर से ही काम करें और जल संकट हो जाने के कारण ऑफिस न आएं। इसी तरह 2016 में विश्व बैंक के एक अध्ययन में चेताया गया है कि अगर भारत अपने जल संसाधनों का कुशलतम इस्तेमाल नहीं करता है तो 2050 तक उसकी जीडीपी (विकास दर) छह फीसद से भी नीचे रह सकती है।

2019 में नीति आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के कई औद्योगिक केंद्रों वाले शहर अगले साल तक शून्य भूजल स्तर तक जा सकते हैं। तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे उद्योगों से भरे पूरे राज्य अपनी शहरी आबादी के 53-72 फीसद हिस्से की ही जलापूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम हैं। देश में पानी के बेहाल होते हालातों की कहानी शिमला जैसे शहरों से समझा जा सकता है। 2018 में शिमला की रोजाना जलापूर्ति 4.4 करोड़ लीटर से कम होकर 1.8 करोड़ लीटर जा पहुंची है। पानी की कमी के चलते वहाँ पर्यटन भी अब चौपट होने की कगार पर पहुँच गया है। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि पानी नहीं होगा, तो पर्यटन नहीं होगा जिससे उद्योग अपने कच्चे माल को तैयार नहीं कर पाएंगे। यही हाल रहा तो देश की पाँच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना मूर्त रूप नहीं ले पाएगा।

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