दुष्प्रचार और निजी स्वार्थों की राजनीति कैसे-कैसे गुल खिलाती है, इसका ताज़ा उदाहरण है कृषि से जुड़े तीन महत्वपूर्ण विधेयकों का विरोध।जब इन विधेयकों को अध्यादेश के रूप में लाया जा रहा था तो आम तौर पर उनका स्वागत किया गया था, लेकिन अब जब उन्हें कानून का रूप देने की कोशिश की जा रही है तो कुछ दल अपनी राजनीति चमकाने के लिए संसद के भीतर और बाहर उनके विरोध में नज़र आ रहे हैं। वहीं, पिछले दिनों राज्यसभा में विपक्ष द्वारा कृषि बिल पर किया गया हंगामा पूरे देश ने देखा। राज्यसभा में ज़रूरत से ज़्यादा विरोध कर सदन की गरिमा से खिलवाड़ करने वाले सांसदों के निलंबन के बाद भी विपक्ष यह मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने कुछ गलत किया है। विपक्ष क्या ये चाह रहा कि पीठासीन अधिकारी के समक्ष की गई अभद्रता की अनदेखी कर दी जाए?
ऐसे में तो संसद में हुड़दंग मचाने वालों को और बल ही मिलेगा। जब सत्तापक्ष सांसदों का निलंबन रद्द करने पर विचार करने को तैयार है, तब फिर विपक्ष को भी चाहिए कि वह अपना हठ छोड़े। आखिर यह राजनीतिक हठ नहीं तो और क्या है कि निलंबित सांसद राज्यसभा के उपसभापति की सद्भावना पहल पर भी पसीजने को तैयार नहीं। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने किसानों को राहत देने के लिए लाए गए विधेयकों के खिलाफ वैसा ही अभियान छेड़ दिया है, जैसा उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ छेड़ा था। हैरानी नहीं कि इसी तरह विपक्ष कृषि बिल पर भी लोगों को बरगलाने के लिए छल-कपट और झूट का जमकर सहारा ले रहा है।
किसान कल्याण के लिए हैं ये तीन विधेयक
कृषि क्षेत्र को समृद्ध करने और किसानों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने पहले लोकसभा और फिर अब राज्यसभा से कृषि बिल पारित करवाए हैं।
पहला विधेयक है कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन व सरलीकरण) अध्यादेश जो देश के अन्नदाता को बिचौलियों के चंगुल से मुक्ति दिलाने के साथ ही उसे अपनी उपज को इच्छानुसार मूल्य पर बेचने की आज़ादी देगा। पहले हमारे किसानों का बाज़ार सिर्फ स्थानीय मंडी तक सीमित था, उनके खरीदार सीमित थे, बुनियादी ढांचे की कमी थी और मूल्यों में पारदर्शिता नहीं थी। ऐसे में किसानों को अधिक परिवहन लागत, लंबी कतारों, नीलामी में देरी और स्थानीय माफिया की मार झेलनी पड़ती थी। इस विधेयक से अब उन्हें राष्ट्रीय बाज़ार में अवसर मिलने के साथ-साथ बिचौलियों से सही मायनों में मुक्ति मिलेगी। किसानों का ‘एक देश-एक बाज़ार’ का सपना भी पूरा होगा।
दूसरा विधेयक है मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश जो बोआई के समय ही बाज़ार से संपर्क प्रदान करता है जिससे किसान के उत्पादन और मूल्य, दोनों से जुड़े जोखिम कम होंगे। इसके तहत किसान कृषि आधारित उद्योगों, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं, निर्यातकों आदि के साथ अनुबंधित कृषि कर सकेंगे। अनुबंधित किसानों को ऋण की सुविधा, तकनीकी सहायता, बीज की उपलब्धता, फसल बीमा सुविधाएं आदि उपलब्ध कराई जाएंगी। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश आने से स्टोरेज, परिवहन तथा एग्रो-इंडस्ट्री खोलने का रास्ता खुलेगा। इसका सीधा लाभ किसानों को मिलेगा। किसान कैश क्रॉप्स और एग्रो-इंडस्ट्री की ज़रूरतों के अनुसार खेती कर अपनी आमदनी बढ़ा सकेंगे। यह अधिनियम किसानों के मालिकाना हक और खेती के अधिकार को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखेगा।
तीसरा विधेयक है आवश्यकता वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन बिल जिससे खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को मुक्त किया जाएगा और अनाज, दलहन, खाद्य तेल, आलू, प्याज़ अनिवार्य वस्तु नहीं रहेंगे जिससे इनका भंडारण किया जा सकेगा।
अंधविरोध में तब्दील होता विरोध
विरोध करने के फेर में विपक्षी दल भूल जाते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की जिन सिफारिशों को कांग्रेस सरकार ने 2006 में ठंडे बस्ते में डाल दिया था, उन्हें मोदी सरकार ने पूरा किया है। मोदी सरकार एमएसपी में लगातार वृद्धि कर रही है। 2014 की तुलना में गेंहू की एमएसपी 41 प्रतिशत, धान की 43, मसूर की 73, उड़द की 42, सरसों की 52, चने की 65 और मूंगफली की 32 प्रतिशत ज़्यादा हो गई है। अभी तक इस बात का रोना रोया जाता था कि देश का किसान यह नहीं तय कर सकता कि वह अपनी उपज कहाँ और कैसे बेचे, लेकिन अब जब किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने की छूट दी जा रही है तो विपक्ष द्वारा राजनीति की जा रही है।
क्या कांग्रेस लोकसभा चुनाव के वक्त जारी किये गए अपने घोषणा पत्र को वापस लेने को तैयार है, जिसमें कहा गया था कि यदि वह सत्ता में आई तो एपीएमसी एक्ट को खत्म कर देगी? यदि नहीं तो फिर उसे धरना-प्रदर्शन करने के बजाए यह स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर वो विरोध किस बात का कर रही है? कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल अब ये दम भर रहे हैं कि वे सड़कों पर उतरने के साथ राष्ट्रपति से यह अनुरोध करने जाएंगे कि वे कृषि संबंधी विधेयकों पर हस्ताक्षर न करें। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या संसदीय नियम-कानून और परंपराएँ इसकी अनुमति देती हैं कि संसद द्वारा पारित विधेयकों को राष्ट्रपति मंजूरी देने से इंकार कर दे? साफ है कि विपक्षी दल दिखावे की राजनीति कर रहा है। ज्ञात हो कि विपक्षी दलों ने यही काम नागरिकता।
तब वह यह चाह रहा था कि संसद से पारित विधेयक इस कारण खारिज कर दिया जाए, क्योंकि वे सड़क पर उतरकर हंगामा कर रहे हैं। यह सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है कि संसद में चर्चा से इंकार करने वाले विपक्षी दल, संसद के बाहर शोर-शराबा कर खुदको लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं का हितैषी बता रहे हैं। अगर राज्यसभा में विपक्ष का संख्याबल पहले जैसा नहीं रहा तो इसका मतलब नहीं कि वह अपनी खीज सड़कों पर निकाले।
पहले सीएए और अब कृषि बिल पर गुमराह करता विपक्ष
देखने में आ रहा कि विपक्षी दल एकजुट होकर कृषि बिल की आड़ में फिर एक बार नागरिकता संशोधन कानून की तरह देश को गुमराह करने की फिराक में हैं। नागरिकता संशोधन कानून बनते ही विपक्षी दल खासकर मुस्लिम समुदाय को बरगलाने के लिए यहाँ तक कहा गया कि यह कानून उनकी नागरिकता छीन लेगा। उनके इस अभियान में मीडिया का एक हिस्सा भी शामिल हो गया था और कई कथित बुद्धिजीवी भी इस कानून के खिलाफ ज़हर उगलने लगे थे। विपक्षी दलों ने नागरिकता संशोधन कानून के वक्त जैसे मुस्लिम समुदाय को सड़कों पर उतारकर धरना-प्रदर्शन और सड़कों को बाधित करने का प्रयास करवाया था, कुछ वैसे ही अब वे किसानों को भ्रमित कर रहे हैं और उन्हें सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन करने को कह रहे हैं।
गौरतलब है कि कृषि विधेयकों के विरोध के लिए भी वही तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं जो सीएए के खिलाफ अपनाए गए थे। कृषि संबंधी ये विधेयक किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों के वर्चस्व से बचाने के लिए हैं, लेकिन विपक्षी दल उन्हें यह समझा रहे हैं कि उपज बेचने की वही व्यवस्था ठीक थी, जिसमें इन दोनों का आधिपत्य रहता था। एक तरह से किसानों को ये बताया जा रहा कि जो उनके शोषण में सहायक बन रहे थे, वही उनके मददगार हैं। विपक्षी दलों द्वारा किसानों को ये भी बोला जा रहा कि सरकार एमएसपी व्यवस्था खत्म करने जा रहीI यह ठीक वैसे ही है जैसे सीएए के मामले में इस दुष्प्रचार को प्रचारित किया जा रहा था कि इससे मुसलमानों की नागरिकता चली जाएगी। ऐसे में किसानों को सचेत रहने की आवश्यकता है जिससे उनके भोलेपन का कोई फायदा न उठा पाए। सरदार पटेल का कहना था, ‘इस धरती पर अगर किसी को सीना तानकर चलने का हक है तो वह धन-धान्य पैदा करने वाले किसान को है।’ कहा जा सकता है कि किसानों के कल्याण के लिए उठाए जा रहे इन कदमों का सुपरिणाम शीघ्र ही देश के समक्ष आएगा और आत्मनिर्भर भारत के लिए हो रहे प्रयासों में हमारे अन्नदाता किसानों की बराबर की भूमिका होगी।