कश्मीर में फिर से जहर घोलने को तैयार है कांग्रेस, लेकिन इस बार नहीं होंगे मंसूबे कामयाब

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की बहाली और राज्य के एकीकरण के मुद्दे पर बेशक फारूख और महबूबा मुफ्ती ने हाथ मिलाया हो, पर अब उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने वाले हैं। दिल्ली में बैठी सरकार बहुत धाकड़ है और ये सरकार किसी भी हालत में घाटी का अमन और चैन खोने नहीं देगी।

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कश्मीर घाटी हिंदुस्तान की जन्नत है। वर्तमान सरकार इस जन्नत को निखारने के लिए प्रतिबद्ध भी नजर आ रही है। धारा 370 हटाने के साथ ही सरकार ने इस बात का संकेत भी दे दिया है। कश्मीर को भी अब बाकी के हिन्दुस्तान जैसा रूप देने की पहल हो चुकी है। पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35ए निरस्त होने के बाद यहाँ का माहौल बदल चुका है। जिन चाक-चौराहों और गलियों में कभी सिर्फ खून के निशान दिखाई पड़ते थे। वहां पर अब शान्ति और अमन का नजारा देखने को मिलता है।

लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे काले चेहरे वाले लोग है जो कि वादी को हिंसा और नफरत के जहर में घोलना चाहते हैं। अगर ये काले चेहरे बार्डर पार के होते या फिर देशद्रोह का लिबास पहने हुए होते तो ज्यादा दुख न होता। तकलीफ़ तो इस बात की है कि ये काले चेहरे देश की राजनीतिक पार्टियों का हिस्सा है। लगातार राजनीतिक हार और अपने जड़ को खोती कांग्रेस इतनी ज्यादा बौखलाहट में है कि इनके नेता अब घाटी में नफरत फैलाने का कृत्य करने से भी पीछे नहीं रह रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर के एकीकरण के लिए कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों ने आपस में हाथ मिलाया है। बंदी से आजाद होने के बाद दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने कश्मीर में फिर से माहौल बिगाड़ने की सामूहिक साजिशें रचनी शुरू कर दी है।

नफरत को सह देकर राजनैतिक रोटियां कब तक खाएंगे ये कांग्रेसी?

वादी में आग लगाने के लिए फारूख-महबूबा व अन्य कश्मीरी नेताओं के बीच बैठकों का दौर जारी है। बीते गुरुवार को सुबह और शाम में लगातार दो बैठकें हुईं, जिसमें जम्मू-कश्मीर के तमाम छोटे-बड़े सियासी दलों के बीच ‘गुप्त चर्चाएं होती रहीं, जिसमें प्रमुख रूप से नेशनल कॉन्फ़्रेंस, पीडीपी पार्टी के नेता शामिल हुए। चौदह महीनों की बंदी से मुक्त हुए सभी नेताओं ने एक सुर में फिर से अनुच्छेद 370 और 35ए को बहाल करने की मांग उठाई।

यह सभी अपने लिए पहले जैसा वातावरण चाहते हैं। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने और नेताओं को नजर बंद से मुक्त कराने के बाद ये उनकी पहली बड़ी बैठक थी। लेकिन अभी भी इन नेताओं की माँग वही है जो एक साल पहले उठाई जा रही थीं। समझदार के लिए इशारा ही काफी है। दरअसल इन नेताओं को कश्मीर की बदहाली की चिंता नही है। इन्हें चिंता है तो बस पत्थरबाजों की और उन देशद्रोहियों की जिनके बूते ये सरकार बनाने का ख़्वाब संजो कर रखते हैं।

अब पहले जैसी कमजोर नहीं रही घाटी

खुफ़िया एजेंसियों के पास ऐसे इनपुट हैं जिसमें कश्मीरी नेता फिर से प्रदेश में उपद्रव कराने की साजिश में हैं। ये देश का दुर्भाग्य ही है कि एक समय मे देश की सबसे बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी ही अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए कश्मीर को नफरत की आग में धकेलने से पीछे नहीं रह रही है।

हालाँकि कश्मीर में जिन नेताओं ने अभी तक जहर फैला कर राजनीति की थी, उन सभी नेताओं के लिए माहौल अब पहले जैसा नहीं रहा। करीब एक साल नजर बंदी में रहने के बाद अब फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती अपने रूतबे को पाने के लिए तड़फड़ा रहे हैं।

पड़ोसी दुश्मन जो कभी इन नेताओं का खुलकर समर्थन करता था वो भी अब पहले जैसी हालत में नही रहा। दुनिया भर में आतंकवाद को लेकर घिरे पाकिस्तान की इमरान सरकार कब धराशायी हो जाए, इसका कोई भरोसा नही है। ऐसे में कश्मीरी नेताओं का अलग-थलग पड़ जाना स्वाभाविक-सा है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की बहाली और राज्य के एकीकरण के मुद्दे पर बेशक फारूख और महबूबा मुफ्ती ने हाथ मिलाया हो, पर अब उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने वाले हैं। दिल्ली में बैठी सरकार बहुत धाकड़ है और ये सरकार किसी भी हालत में घाटी का अमन और चैन खोने नहीं देगी।

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