भारत में बहुत सारे प्राचीन मंदिर है जिनका अपना कोई न कोई एक इतिहास रहा है। महाराष्ट्र में एलोरा की गुफाओं के नजदीक भगवान शंकर के 12 ज्योतिर्लिंग में शामिल एक मंदिर स्थित है जिसका नाम है घृणेश्वर मंदिर। यहां पर मुख्य ज्योतिर्लिंग पूर्व मुखी है। बताया जाता है कि घृणेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा देवगिरी दुर्ग के बीच में पातालेश्वर महादेव है जिनकी पूजा स्वयं भगवान सूर्यदेव करते हैं। सूर्यदेव इस ज्योतिर्लिंग की पूजा करते हैं इसीलिए यह कहा जाता है यहां आने वाले भक्तों सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं, और धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
यह कहा जाता है कि भगवान शंकर दिन में सभी जगह पर निवास करते हैं और रात्रि में शिवालय तीर्थ के पास पूरे देश में तो भगवान भोलेनाथ की 108 शिवलिंग की आराधना की जाती है तथा 108 बार ही परिक्रमा की जाती है। लेकिन यहां पर भगवान भोलेनाथ के 101 शिवलिंग बनाए जाते हैं और 101 बार ही परिक्रमा की जाती है। इस ज्योतिर्लिंग के निकट एक सरोवर भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि जब तक आपके सरोवर के दर्शन ना करें आपकी यात्रा अधूरी रहती है। यदि कोई निसंतान दंपत्ति सूर्योदय से पहले इस सरोवर के दर्शन करने के पश्चात भगवान घृणेश्वर के भी दर्शन कर ले तो उसे संतान की प्राप्ति हो जाएगी।
पौराणिक कथा के अनुसार
इस ज्योतिर्लिंग के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जो कि इस प्रकार है। पौराणिक कथा के अनुसार दक्षिण दिशा में स्थिति देवपर्वत पर सुधर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण अपनी धर्मपरायण सुंदर पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। कई वर्षों के बाद भी उनके कोई संतान नहीं हुई। लोगों के ताने सुन-सुनकर सुदेहा दु:खी रहती थी। अंत में सुदेहा ने अपने पति को मनाकर उसका विवाह अपनी बहन घुष्मा से करा दिया। घुष्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। सुदेहा ने इर्ष्या वश घुष्मा के सोते हुए पुत्र का वध करके पासे के एक तालाब में फेंक दिया। इतनी विपरित स्थिति के बावजूद घुष्मा ने शिवभक्ति नहीं छोड़ी और रोज की भांति वह उसी तालाब पर गई। उसने सौ शिवलिंग बना कर उनकी पूजा की और फिर उनका विसर्जन किया।
इसी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव जी प्रसन्न हुए और जैसे ही वह पूजा करके घर की ओर मुड़ी वैसे ही उसे अपना पुत्र खड़ा मिला। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव खुद वहां आये। अब वह त्रिशूल से सुदेहा का वध करने चले तो घुष्मा ने शिवजी से हाथ जोड़कर विनती करते हुए अपनी बहन सुदेहा का अपराध क्षमा करने को कहा। घुष्मा ने भगवान शंकर से पुन: विनती की कि यदि वह उस पर प्रसन्न हैं, तो वहीं पर निवास करें। भगवान शिव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और घुष्मेश नाम से ज्योतिर्लिग के रूप में वहीं स्थापित हो गए।