जैसा की आप सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र के पालघर जिले के गढ़चिचले गाँव से 16 अप्रैल को एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई थी। यूं तो मामला रफा-दफा करने की पूरी कोशिश की गई पर तीन दिन बाद उस घटित घटना के वीडियो सोशल मीडिया पर तेज़ी से फैलने लगे और देखते-देखते ये पूरे देश में चर्चा के विषय बन गए। ज्ञात हो कि 16 अप्रैल की रात जूना अखाड़े के साधु सुशील गिरी महाराज (30) व चिकने महाराज कल्पवृक्ष गिरी (70) मुंबई के कांदिवली इलाके से अपने गुरु की अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए सूरत जा रहे थे। अपने गंतव्य तक पहुंचने में उन्हें दिक्कत न हो इसीलिए उन्होंने गाड़ी से चलने का निर्णय लिया और अपने ड्राईवर निलेश तेलगड़े (30) को भी अपने साथ ले लिया। रास्ते में सबकुछ ठीक जा रहा था कि तभी उनके वाहन को वन विभाग के एक संतरी ने महाराष्ट्र एवं केंद्र शासित प्रदेश दादरा एवं नागर हवेली की सीमा पर स्थित गढ़चिचले गाँव के पास उन्हें पूछताछ के लिए रोक लिया। संतरी ने उन्हें गाड़ी से बाहर निकालकर रोड पे बैठाया ही था कि तभी अचानक 100-200 लोगों का हुजूम वहाँ इकठ्ठा हो गया। फिर जैसा कि सोशल मीडिया में आए वीडियो से पता चल रहा है कि पुलिस ने खुद इन साधुओं को भीड़ के हवाले कर दिया और खुद दुम-दबाके भाग खड़ी हुई। वीडियो में साफ दिख रहा है कि पुलिस किस बेचारगी का सामना कर रही है कि, जब एक साधु एक पुलिसवाले का हाथ थामे ये सोच रहा था कि कम-से-कम ये पुलिसवाला उसे इस भीड़ से बचा लेगा, उसी पुलिसवाले ने उससे अपना हाथ झिटक लिया और उस साधु को भीड़ के सुपुर्द कर दिया। वीडियो के दृश्य काफी विचलित करने वाले हैं। उक्त घटना में दोनों साधुओं के साथ भीड़ ने ड्राईवर को भी नहीं बख्शा और उसे भी मौत के घाट उतार दिया।
आखिर कब तक होती रहेगी गैर-ज़िम्मेदाराना रिपोर्टिंग?
16 अप्रैल को घटी इस घटना के बाद जो सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात थी वो थी इस खबर की विभिन्न मीडिया समूहों द्वारा की गई गलत रिपोर्टिंग। इस लोकतांत्रिक देश में ‘सेक्युलर’ शब्द आज सिर्फ अल्पसंख्यकों की चाटुकारिता करने भर तक ही बचा रह गया है। विपक्षी पार्टियां जिनमें कांग्रेस, सपा, बसपा, एनसीपी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया व तृणमूल कांग्रेस आदि शामिल हैं आज उन्हीं के साथ एनडीटीवी, द प्रिंट, द वायर, द इंडियन एक्सप्रेस जैसी मीडिया संस्थाएं खुलकर अल्पसंख्यकों की करतूतों को छुपाने का कार्य करती नज़र आतीं हैं। अगर इन मीडिया संस्थाओं द्वारा इस मामले पर इनकी 17 अप्रैल की रिपोर्टिंग देखी जाए तो वहाँ कभी इस खबर को लिखते वक़्त उन्होंने ‘दो चोरों की हत्या’ बताया या कहीं ‘दो लोगों की हत्या’ बताकर अपनी रिपोर्टिंग की ज़िम्मेदारी का जैसे-तैसे निर्वाहन कर लिया। ऐसे में सवाल उठना जायज़ है कि जब इसी देश में एक अल्पसंख्यक की एक भीड़ द्वारा हत्या कर दी जाती है तब ऐसी मीडिया संस्थाएं भारत की बहुसंख्यक आबादी को गालियां देने में कोई कोर-कसर नहीं बाकी रखतीं व देश ही नहीं बल्कि विदेश तक अपनी छाती पीट-पीटकर घड़ियाली आँसू बहाती हैं। वहीं, जब देश में अल्पसंख्यकों द्वारा एक हिंदू की बेहरहमी से हत्या कर दी जाती है तब यही मीडिया संस्थाएं ऐसी खबरों की ठीक से रिपोर्टिंग न करके अपनी विश्वसनीयता गंवा देती हैं। इनके झासे में भी वही लोग आते हैं जो ये ठानकर बैठे हैं कि इस देश की सरकार जो भी करेगी उन्हें इसके खिलाफ ही बोलना है फिर चाहे इनकी नफरत के आगे खुद देश को ही शर्मिंदा क्यों न होना पड़े।
कट्टरपंथियों से जूझता भारत
भारत आज कट्टरपंथियों की घिनौनी सोच के साए में समता जा रहा है। धर्म और मज़हब से परे ये कट्टरवादी तत्व धीरे-धीरे इंसान को दानव बनाते जा रहे हैं और कब वे इंसान मुख्यधारा से अलग हो जाते हैं शायद उन्हें भी या मालूम नहीं पड़ता। चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख या ईसाई हर धर्म या मज़हब को मानने वालों में ऐसे भी लोग पाए जाते हैं जिनका काम ही होता है उस समाज या उस देश के अमन-चैन को नुकसान पहुँचाना। ऐसे कट्टरवादी तत्व अपने संपर्क में आने वाले के अंदर इतना ज़हर भर देते हैं कि फिर वो चाहे कितना भी पढ़ा-लिखा क्यों न हो पर अगर उसमें सूझ-बूझ की ज़रा सी भी कमी है तो वो देर-सबेर इनके झांसे में आ ही जाता है। अपने पाले में कर लेने की ये एक बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिसमें कट्टरवादी महारथ हासिल किए रहते हैं और ऐसे ही वो मासूमों से कभी उनका बचपन तो कभी उनकी जवानी छीन लेते हैं। हिंदुओं के एक तबके के अंदर जो नफरत का बीज बोया जा रहा है उसमें पहले पायदान पर भीम-मीम पार्टी का नाम सामने आता है। ये वही पार्टी है जिसके मुख्य कर्ता-धर्ता चंद्रशेखर हैं। इस पार्टी का क्रिया-कलाप सिर्फ इतना भर रह गया है कि कैसे हिंदुओं के एक तबके के अंदर (जिसे ये दलित कहते हैं) बाकी हिंदुओं के खिलाफ प्रपंच फैलाकर नफरत पैदा की जाए और उन्हें बाकी के हिंदुओं के साथ से पीछे ढकेलकर मुख्यधारा से अलग कर दिया जाए। दलित- मुस्लिम के झूठे गठबंधन का ख्वाब संजो रहे चंद्रशेखर इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि कैसे भारत की आज़ादी के बाद मुस्लिम बहुल कश्मीर सरकार ने उत्तर प्रदेश व बिहार के हरिजनों को अपने घरों की नालियां साफ करवाने बुलाया था और देखते-ही-देखते कश्मीरी हुकूमत ने उन मज़दूरों के सारे हक मारकर एक तरह से आजतक उनका शोषण ही किया थाI बात चाहे तब की हो या अब हुए एंटी-सीएए के विरोध प्रदर्शनों की जहाँ संविधान बचाने की आड़ में खुलकर भारत को एक इस्लामिक देश बनाने की पैरवी की गई। क्या चंद्रशेखर या उनकी पार्टी ये बता पाएगी कि एक इस्लामिक देश में काफिरों (इस्लाम को न मानने वाले) के कोई हक नहीं होते फिर चाहे कोई दलित (उनके हिसाब से) हो या फिर ब्राम्हण भीम-मीम पार्टी फिर किस मुगालते में लोगों को भ्रमित करने पर उतारूँ है, ये उनकी पार्टी व उनके कार्यकर्ता ही बेहतर ढंग से बता पाएंगे। वहीं, दूसरी ओर मुस्लिम कट्टरपंथियों की जमात है जिनमें आजकल सभी तब्लीगी जमात का नाम सुन रहे हैं। तब्लीगी जमात एक ऐसी संस्था है जिसका मूल उद्देश्य ही है कि कैसे एक मुख्यधारा के समझदार मुसलमान को उसके भले रास्ते से भटकाकर कट्टरपंथ की तरफ ले जाया जाए। इस संस्था के आज देश-विदेश में फैले करोंड़ों अनुयायी हैं जिनका सिर्फ एक मकसद है कि कैसे दुनिया में इस्लामी हुकूमत को कायम किया जाए और उनके इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्हें घोर कट्टरपंथी तत्व बनाने होते हैं जिससे उनके दिए हर हुक्म को समय आने पर ऐसे लोग मान जाएं। बड़े आश्चर्य की बात है कि कई देशों में अपने सनकी रवैये के कारण प्रतिबंधित हो चुका तब्लीगी जमात का मुख्यालय और कहीं नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में है। इसी तरह पाकिस्तान के आईएसआई द्वारा प्रायोजित खालिस्तिनी मूवमेंट भारत को तोड़ने की साज़िश के अलावा और कुछ नहीं नहीं है। आखिर में बात ईसाई समुदाय की करें तो यहाँ पाए जाने वाले कट्टरपंथी तत्व गरीब तबके के मासूमों का धर्मांतरण कभी राशन तो कभी पैसों का लालच देकर सरकार व प्रशासन की नाक के नीचे धड़ल्ले से कर रहे हैंI दुनिया में प्यार फैलाने के ढोंग की आड़ में आज ये ईसाई मिशनरी सिर्फ धर्मांतरण करवाने में लिप्त हैं और उनके इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्हें भला भारत से अच्छा देश और कहाँ मिलेगा? इसी के चलते आज केरल, असम, मेघालय, नागालैंड व सिक्किम जैसे राज्यों में हिंदुओं की तादाद देखते-देखते निम्न स्तर पर पहुंच चुकी है और वहीं ईसाईयों की जनसंख्या बढ़ती जा रही।
हम कब लेंगे ज़िम्मेदारी?
ईसाई मिशनरीज़ द्वारा धर्मांतरण का ये खेल इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि जिस गढ़चिचले गाँव में इन दो साधुओं की निर्मम हत्या हुई वो पूरा इलाका क्रिस्टो क्रिश्चियन एवं नक्सलियों के कारण कुख्यात माना जाता है। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब उन 100-200 लोगों की भीड़ ने उन दो साधुओं को निहत्था देखा हो तो उनके अंदर की नफरत इस कदर उनपर हावी हो गई कि उन्होंने पुलिस के सामने ही भगवा रंग धारी उन साधुओं की हत्या कर डाली और साथ ही उनसे 50,000 रूपए व उनकी और भी चीज़ें चुरा ले गए। ऐसे में सरकार और प्रशासन पर उंगली उठाने से पहले हमें अपनी भी ज़िम्मेदारी का बोध होना ज़रूरी है। ज़रूरी नहीं कि हम हर बार सरकार पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करें, कुछ हमारा भी दायित्व बनता है कि हम अपने आस-पास फैली ऐसी कट्टरपंथी संस्थाओं व गलत गतिविधियों में शामिल लोगों के सच को उजागर करें और समाज के एक सजग प्रहरी की भूमिका अदा करें तभी हम एक सुरक्षित भविष्य अपने व अपने परिवार के लिए सुनिश्चित कर सकते हैं।