नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ देशभर में चल रहा विरोध शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले महीने 17 दिसंबर को आईआईटी कानपुर के कुछ छात्रों ने विरोध प्रदर्शन के दौरान पाकिस्तानी कवि मोहम्मद फैज़ अहमद की नज़्म ‘हम देखेंगे, लाजिम है हम भी देखेंगे…’ गाई थी। यूनिवर्सिटी के प्रौफेसर्स और अन्य स्टाफ का आरोप है कि ये नज़्म हिंदू विरोधी है। जिन छात्रों ने ये नज़्म गाई है, उनके खिलाफ देशद्रोह का केस दर्ज कर सख्त कारवाही की जानी चाहिए।
आईआईटी कानपुर में इस विवाद को लेकर एक समिति का गठन किया गया है, जो यह तय करेगा कि ये नज्म वाकई में देश विरोधी है या नहीं। इस मुद्दे पर प्रसिद्ध कवि और गीतकार गुलज़ार साहब ने भी अपनी राय व्यक्त की है। उनके अनुसार नज़्म या किसी कविता को लेकर सांप्रदायिकता नहीं फैलाई जानी चाहिए। गुलज़ार साहब के अनुसार यह फैज़ जैसे महान कवि और उनकी रचना के साथ अन्याय है।
गुलज़ार ने कहा, “’फैज साहब एशिया के सबसे बड़े शायरों में से एक हैं। वो टाइम्स ऑफ पाकिस्तान के एडिटर रह चुके हैं, कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर रह चुके हैं। उस स्तर के शायर, जो प्रग्रेसिव मूवमेंट के संस्थापक भी रहे, उस आदमी को महजब के आधार पर इस तरह का इल्जाम देना मुनासिब नहीं लगता। ये मतलब उन लोगों के लिए गलत है, जो ऐसा कर रहे हैं।”
इतना ही नहीं उन्होंने आगे यह भी कहा कि, “फैज अहमद फैज को सब जानते हैं और उन्होंने जिया उल हक के जमाने में लिखी गई नज्म को अगर आउट ऑफ कॉन्टेस्ट प्लेस कर दें, तो इस स्थिथि में नज्म पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते। यह गलती उनकी है, जो इस तरह की बात कर रहे हैं। एक कविता, एक शेर या कुछ भी लिखा गया है, उसे एक सही परिपेक्ष्य में देखना जरूरी है।”
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