धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ रहा है बहुसंख्यक, संविधान से समाप्त होना चाहिए धर्मनिरपेक्ष शब्द

भारतीय संविधान के प्रस्तावना में घोषणा के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। भारत में एक राष्ट्र के तौर पर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, सरकार की सभी धर्मों से एक समान दूरी बनाए रखना है। लेकिन बहुसंख्यकों के साथ इस शब्द को लेकर काफी समस्याएं हैं। ऐसे में संविधान से इस शब्द को हटाए जाने की सबसे ज्यादा आवश्यकता हो चली है।

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क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है? ये एक ऐसा सवाल है जो शायद भारत के अस्तित्व के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो हमेशा के लिए किसी एक समाज या व्यक्ति से जोड़ दिए जाते हैं। धर्मनिरपेक्ष या सेकुलरिज्म शब्द उनमें से ही एक है। शुरू से ही भारतीय संविधान का चरित्र धर्मनिरपेक्ष रहा है। हालांकि संविधान की प्रस्तावना में इसे बाद में जोड़ा गया था। 1947 में जब भारत को आजादी मिली तभी से धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा गढ़ दी गयी थी लेकिन समय के साथ इसके अर्थ और मायने अलग होते चले गए। भारत में एक राष्ट्र के तौर पर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, सरकार को सभी धर्मों से एक समान दूरी बनाए रखना।

भारतीय संविधान की कई धाराओं से धर्मनिरपेक्षता का भाव जाहिर होता है। लेकिन पिछले कुछ समय में भारत की धर्मनिरपेक्षता को लेकर काफी सवाल उठे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस बात को मान चुका है कि आने वाले समय में भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश कब तक बना रहेगा ये कोई नहीं जानता। जिसका सबसे बड़ा कारण ये भी है कि अब स्वतंत्र भारत के बाद पहली बार बहुसंख्यक या हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा पर खुल कर बात होने लगी है। इतिहासकारों और राजनेताओं की माने तो सेक्युलरिज़्म का अर्थ है धार्मिक स्वतंत्रता, अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता लेकिन कुछ घटनाओं ने इस पर सवाल खड़े किये हैं। अभी तक ना तो बहुसंख्यक और ना ही अल्पसंख्यक धर्मनिरपेक्ष मसलों को समझ समझ पाए हैं। यही कारण हैं कि धर्मनिरपेक्षता एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के साथ जोड़ने के बदले समुदायों को अलग कर रहा है।

बहुसंख्यकों को परेशानी क्यों?

पिछले कुछ दशकों में देखा गया है कि बहुसंख्यक समुदाय धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ता आया है। एक धर्म से जुड़े मुद्दों को धर्मनिरपेक्षता का ठप्पा लगाकर दबा दिया जाता है। सेकुलरिज्म का कई क्षेत्रों में नाकाम होना भी इसका सबसे बड़ा कारण है। बहुसंख्यक या पढ़े लिखें हिंदुओं की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि ज़्यादातर नियम, क़ानून, पाबंदियां सब उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्थाओं पर ही है। हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट ने राममंदिर के हक में फैसला सुनाया था तभी से धर्मनिरपेक्षता को लेकर अन्य समुदायों ने सवाल खड़े करने शुरू कर दिए थे। इससे पहले ये शब्द काफी सालों से ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था। इसके अलावा समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का लागू न होना और अन्य समुदायों को विशेष अधिकार देना भी इसका सबसे बड़ा कारण है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया है। हालांकि कई ऐसे अनुच्छेद मौजूद हैं जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य साबित करते हैं। भारत की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन के बाद पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया था, जिसका अर्थ था भारत में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द को जोड़ने के साथ ही जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगा दी गयी थी। इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को धर्म के आधार पर कई विशेष अधिकार भी दिए गए हैं। वहीं अनुच्छेद 44 में प्रावधान किया गया है कि राज्य सभी नागरिकों के लिये समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) बनाने का प्रयास करेगा।

पश्चिमी देशों से कैसे अलग है भारतीय धर्मनिरपेक्षता?

भारत की धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी देशों से काफी अलग है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारत में कोई मठ या मंदिर किसी महिला सदस्य को महंत बनाने से इनकार करता है तो सरकार और न्यायालय इन मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। लेकिन पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं है। वहां के धार्मिक मामलों में कोर्ट का कोई हस्तक्षेप नहीं होता।

Uniform Civil Code सबसे बड़ी चुनौती

धर्मनिरपेक्षता के लिए यूनिफार्म सिविल कोड सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। बहुसंख्यकों का धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ना भी इसी कानून का अभी तक बहाल ना होना एक कारण है। बहुसंख्यक हिंदुओं की यही दलील है कि जब देश धार्मिक तौर पर एक है तो सबके लिये एक समान कानून क्यों नहीं है? धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान से अलग कर पाना भले ही थोड़ा जटिल हो लेकिन यूनिफार्म सिविल कोड का आना एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए सबसे आवश्यक है। देश के प्रमुख धार्मिक समुदायों के ग्रंथों, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के आधार पर बनाए गए व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर भारत के सभी नागरिकों के लिये एक समान संहिता बनाने को ही यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता कहते हैं।

क्यों आवश्यक है UCC?

यूनिफार्म सिविल कोड के लागू होते ही विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग और लिंग से संबंध रखने वाले नागरिकों के लिए एक समान कानून बन जाएगा। सभी धर्मों से जुड़े फैसले न्यायिक रूप से लिये जाएंगे और साथ ही किसी विशेष समुदाय को रियायतें या अन्य विशेषाधिकारों के मुद्दों पर राजनैतिक बयानबाजी और वोट बैंक की राजनीति भी बंद हो जाएगी। इस कानून के बाद अन्य समुदायों को धार्मिक तौर पर दिए गए विशेष अधिकार भी खत्म हो जाएंगे जिसके बाद धर्मनिरपेक्ष या सेकुलरिज्म के नाम पर एक समुदाय की आस्था के साथ खिलवाड़ खुद बंद हो जाएगा।

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