यह देखना दयनीय है कि किसी भी मामले की गंभीरता को समझे बिना ही आज गैर राजनीतिक संगठनों की ओर से भी राजनीतिक दलों की तरह के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। हाथरस कांड को लेकर राजनीतिक दल और गैर-राजनीतिक संगठन भले ही खुदको दलित हितैषी साबित करने की होड़ करते दिखाई दें पर उनका मकसद अपनी राजनीति चमकाना भर रह गया है। यही कारण है कि वे हाथरस वाली घटना पर तो अपनी ज़रूरत से ज़्यादा सक्रियता दिखाते हैं लेकिन बलरामपुर कांड का संज्ञान लेने से कतराते हैं। इससे खराब बात और क्या हो सकती है कि किसी गंभीर घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने अथवा संवेदना जताने का काम यह देखकर किया जाने लगे कि अमूक घटना कहाँ, किसके साथ और किस दल के शासन वाले राज्य में घटित हुई है।
आज हाथरस जैसी घटनाओं को राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगा है, इसलिए संवेदना प्रकट करने के बहाने राजनीतिक हित साधने की ही अधिक कोशिशें की जाती हैं। इतना ही नहीं बल्कि आज तो सुप्रीम कोर्ट को विभिन्न राजनीतिक दलों व गैर राजनीतिक संगठनों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने का ज़रिया बनाए जाने लगा है। यह आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है कि सुप्रीम कोर्ट उन तत्वों को हतोत्साहित करे, जिन्होंने अपनी राजनीतिक लड़ाई उसके ज़रिए लड़ना अपनी रणनीति का हिस्सा बना लिया है। हाथरस कांड पर जिस तरह परस्पर विरोधी दावे किये जा रहे हैं और रोज़ नए खुलासे हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए यही उचित है कि इस मामले की इस तरह गहन जाँच हो कि कहीं कोई संदेह न रह जाए। इसमें जितनी देर होगी, इस तरह की सस्ती राजनीति करने वालों को उतनी ही सुविधा मिलेगी।
हाथरस कांड की जांच
ऐसा शायद ही किसी मामले में दिखाई देता है कि उक्त मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दिए जाने के बाद भी उसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट भी करे और हाई कोर्ट भी। हाथरस कांड ऐसे मामलों में अपवाद सिद्ध हो रहा है। हालांकि अभी इसका फैसला आना शेष है कि सीबीआइ जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट अपने जिम्मे लेगा या नहीं, लेकिन जब उत्तर प्रदेश सरकार खुद ही इसकी पेशकश कर रही है तब फिर ऐसा ही होना ठीक है, ताकि किसी भी तरह की गुंजाइश न बाकी रह जाए और दोषियों पर उचित कार्रवाई हो सके। जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट की ओर से किये जाने से ऐसे आरोपों के लिए भी कोई जगह नहीं होगी क्योंकि सीबीआइ आखिरकार केंद्र सरकार के ही अधीन है।
चूंकि हाथरस प्रकरण का कुछ ज़्यादा ही राजनीतिकरण हो गया है शायद इसीलिए यह स्थिति बनी कि हाई कोर्ट के साथ सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले की सुनवाई कर रही है। वैसे क्या कोई अदालत यह भी सुनिश्चित करेगी कि हाथरस कांड जैसे जिन मामलों का राजनीतिकरण नहीं हुआ है, उनमें भी कुछ ऐसी ही सक्रियता दिखे? यह सवाल इसलिए भी है कि जिन दिनों विभिन्न दलों और संगठनों के नेता हाथरस की ओर दौड़ लगा रहे थे, उन्हीं दिनों देश के अनेक हिस्सों से हाथरस कांड जैसे तमाम मामले सामने आये, लेकिन न ही राजनीतिक दलों ने उनकी सुध ली और न ही सामाजिक संगठनों ने। आज की इस दलगत राजनीति में इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि ऐसे मामलों का राजनीतिकरण हुए बगैर कोई जनहित याचिका लेकर उच्चतर न्यायपालिका तक पहुंचेगा और इसकी उम्मीद तो और भी कम है कि न्यायपालिका उनका स्वतः संज्ञान लेगी।
मौकापरस्त राजनीति
निःसंदेह कोई यह तय नहीं कर सकता कि किसी की संवेदना किस मामले में जगे और किसमें नहीं लेकिन इसे मौकापरस्त राजनीति की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा कि संवेदना व्यक्त करने का काम सिर्फ इस आधार पर किया जाए कि पीड़ित और आरोपित कौन है और घटना किस दल के शासन वाले राज्य में हुई है? इसे शुद्ध गिद्ध राजनीति ही कहा जा सकता है। अभी हाल ही के समय में राजनीतिक दलों और गैर राजनीतिक संगठनों ने अपनी संवेदनाओं को जिस तरह से जाति और संप्रदाय में बांटा है, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है।
जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा गूंजने के बाद टुकड़े-टुकड़े गैंग का जो जुमला प्रचलन में आया था, उसी प्रकार राजनीतिक दलों ने अपनी संवेदना को भी टुकड़ों में बांट दिया है। अब वे मौका और माहौल देखकर अपनी संवेदना व्यक्त करते हैं। हाथरस कांड में पीड़ित दलित और आरोपित उच्च जाति के बताए जा रहे हैं। ऐसे में विभिन्न राजनीतिक दल इस मामले को बिना राजनीति किये नहीं जाने देना चाह रहे। वहीं, इसी तरह बलरामपुर मामले में पीड़ित दलित और आरोपित मुसलमान हैं तो वहाँ नेताओं की चुप्पी इस बात का सुबूत है कि नेताओं को सिर्फ अपने वोट बैंक की चिंता है, फिर चाहे पीड़ित को न्याय मिले या न मिले। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा ऐसा इसलिए भी किया जाता है क्योंकि उससे उनके राजनीतिक हित नहीं सधते हैं या फिर अपने नैरेटिव को साबित करने में उन्हें मुश्किलें आती हैं।
अपने एजेंडे के तहत तय होती राजनीति
चाहे हाथरस कांड हो या बलरामपुर कांड, ऐसी घटनाएं सभ्य समाज को शर्मिंदा ही करती हैं। यह देखना भी दयनीय है कि पीड़ित को न्याय दिलाने की जगह विभिन्न राजनीतिक दलों का सारा ज़ोर यह साबित करने पर है कि ऐसी खौफनाक घटना तो इसलिए घटी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा शासन में है। ऐसे राजनीतिक दल, प्रायः सत्तारूढ़ दलों को दलित व आदिवासी विरोधी करार देने में समय नहीं गंवाते। उन्हें अमूमन इसमें कामयाबी भी मिल जाती है क्योंकि वंचित और पिछड़े वर्गों के साथ अन्याय-उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं। निःसंदेह ऐसी घटनाएं रुकनी चाहिए लेकिन यह खतरनाक है कि उनकी आड़ लेकर वंचित वर्गों में अलगाव की भावना पैदा करने, हिंसा फैलाने और विभिन्न वर्गों में वैमनस्य बढ़ाने का कार्य किया जाए।
फिलहाल ऐसा ही हमारे देश में देखने को मिल रहा है। यह एक तरह की खतरनाक राजनीति है। इसमें पहले झूठे आरोपों के ज़रिए सोशल मीडिया पर तूफान खड़ा किया जाता है और फिर सड़कों पर अराजकता फैलाई जाती है। आज सोशल मीडिया इस अराजक राजनीति का खास हथियार बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने सही ही कहा है कि हम इंटरनेट के दौर में जी रहे हैं, जहाँ लोग डिजिटल माध्यम से बिना नेतृत्व के ही एकजुट होकर आंदोलन का स्वरुप देने में सक्षम हो गए हैं। चूंकि सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल हो रहा है इसलिए उस पर नियंत्रण के तौर-तरीके विकसित करने होंगे। सोशल मीडिया कंपनियां भी अपनी ज़िम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह करती नहीं दिख रहीं हैं। वे आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के अनुचित इस्तेमाल के साथ इस तकनीक का दुरूपयोग होने भी दे रहीं हैं। इसके चलते जो माध्यम जानकारी पाने, संवाद कायम रखने और अपनी बात देश-दुनिया तक पहुंचाने का ज़रिया है, वह अब कई समस्याएं खड़ी करता दिख रहा है।