संप्रदाय देखकर मीडिया करता है भेदभाव, बहुसंख्यकों के खिलाफ खड़ा है मीडिया चैनल्स का बड़ा हुजूम उत्तर प्रदेश के हाथरस और बलरामपुर रेप केस चर्चा में आने के बाद जो सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात थी, वो थी इन दोनों घटनाओं की पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई विभिन्न मीडिया समूहों द्वारा गलत रिपोर्टिंग। हाथरस रेप केस में जहाँ दोषी हिंदुओं के उच्च जाति के बताए जा रहे, तो वहीं बलरामपुर रेप केस में दोषी मुस्लिम समाज के हैं। ताज्जुब की बात तो ये है कि आज हाथरस की घटना जहाँ देश-दुनिया में सुर्खियां बटोर रही हैं, वहीं बलरामपुर की घटना पर शायद ही कहीं इस पर चर्चा हो रही। स्वघोषित मानवाधिकारों के ठेकेदार कुछ पश्चिमी मीडिया समूह जैसे इसी ताक में रहते हैं कि कब भारत में ऐसी घटना घटित हो और वे भारत के हिंदू समाज को नीचा और पिछड़ा बता सकें। हाथरस की घटना पर भी कुछ ऐसा ही देखना में आ रहा कि बात जहाँ हिंदू समाज को विभाजित करने की हो वहाँ कांग्रेस, इस्लामिक संगठन और मार्क्सवादी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इनमें इनका साथ कुछ पश्चिमी मीडिया समूह भी देते हैंI वहीं, जब ऐसी ही किसी घटना के दोषी मुस्लिम समाज से होते हैं तब इन्हें जैसे सांप सूंघ जाता है।
जाति-मज़हब देखकर खबरों की रिपोर्टिंग
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ‘सेक्युलर’ शब्द आज सिर्फ विशेष समुदाय की चाटुकारिता करने भर तक सीमित रह गया है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टियां जिनमें कांग्रेस, सपा, बसपा, एनसीपी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया व तृणमूल कांग्रेस आदि शामिल हैं, आज इन्हीं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाते एनडीटीवी, द प्रिंट, द वायर, द इंडियन एक्सप्रेस जैसी मीडिया संस्थाएं खुलकर अल्पसंख्यकों की करतूतों को छुपाने का कार्य व हिंदू समाज को बांटने का कार्य करती नज़र आतीं हैं। 130 करोड़ की आबादी वाले भारत में जब एक चोरी करने के आरोपी मुसलमान की भीड़ द्वारा हत्या कर दी जाती है तब ऐसी मीडिया संस्थाएं, देश की बहुसंख्यक आबादी को कोसने में देर नहीं लगातीं और विदेशों तक अपनी छाती पीट-पीटकर घड़ियाली आँसू बहाती हैं। वहीं, जब देश में विशेष समुदायों द्वारा एक हिंदू की बेहरहमी से हत्या कर दी जाती है तब यही मीडिया संस्थाएं ऐसी खबरों की ठीक से रिपोर्टिंग न करके अपनी विश्वसनीयता खो बैठती हैं। इनके बहकावे में भी अक्सर वही लोग आते हैं जो ये मानकर बैठे हैं कि जो भी देश के हित में प्रधानमंत्री मोदी कार्य करेंगे उन्हें इनके खिलाफ ही बोलना है फिर चाहे इनकी नफरत के आगे खुद देश को ही क्यों न शर्मिंदा होना पड़ जाए। ऐसे में आज विरोध के नाम पर विरोध की प्रवृत्ति अंधविरोध का रूप लेती जा रही है। अंधविरोध की इसी खतरनाक प्रवृत्ति के चलते कुतर्कों के साथ झूठ का सहारा बड़ी बहादुरी के साथ लिया जाना जैसे आम बात हो चुकी है।
“तब तुम कहाँ थे?” वाला राग
अपराध को अपराध की नज़र से न देखकर उसमें हिंदू और मुसलमान तलाशना, ऐसी विकृत सोच से भला देश का उद्धार तो होने से रहाI वैसे आज सही इरादों व तर्कों के साथ किया गया विरोध भी नामुमकिन हो चला है। जैसे टेलीविजन की बहस में किसी समझदार पैनेलिस्ट का अपनी बात रखना लगभग असंभव हो जाता है, उसी तरह सोशल मीडिया में किसी समझदार व्यक्ति के लिए किसी बात का विरोध करना भी नामुमकिन हो गया है। आपने विरोध किया नहीं कि विरोधी विचारधारा वाले आपपे टूट पड़ते हैं कि तब तुम कहाँ थे? आप बॉलीवुड में ड्रग्स के चलन की बात करें तो उनका सवाल होगा- जब संजय दत्त ड्रग्स ले रहा था, तब तुम कहाँ थे? अब क्यों इंडस्ट्री को बदनाम कर रहे हो? जब महाराष्ट्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात की जाए तो विरोधी कहेंगे- तब तुम कहाँ थे, जब देश में आपातकाल की स्थिति थी? मतलब, विरोधी 20 साल के नौजवान से आज़ादी के वक्त उसकी उपस्थिति भी पूछ सकते हैं और वो भी प्रमाण सहित। ऐसे में आधारहीन आरोप-प्रत्यारोप और तर्कविहीन हो चुकी टेलीवीजन व सोशल मीडिया की बहसों में समझदार इंसान के लिए कुछ काम का नहीं बचा है।
देश को बांटने वाले राजनीतिक दल और मीडिया समूह
कांग्रेस, वाम दल, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा एवं कुछ अन्य दलों ने किसानों को राहत देने के लिए लाए गए कृषि बिल के खिलाफ कुछ वैसा ही अभियान छेड़ा हुआ है, जैसा उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ छेड़ा हुआ था। उस कानून के खिलाफ खासकर मुस्लिम समुदाय को अपने साथ करने के फेर में वे यहाँ तक कह गए थे कि इस कानून के आने से उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी। गौरतलब है कि इस अभियान में इन राजनीतिक दलों का साथ मीडिया के एक समूह ने भी दिया और कई कथित बुद्धिजीवी भी इस कानून के खिलाफ जनता को गुमराह करते रहे। कृषि बिल जहाँ किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों के वर्चस्व से बचाने के लिए है, लेकिन विपक्षी खेमा जिनमें कुछ राजनीतिक दल और मीडिया समूह शामिल हैं, किसानों को समझा रहे हैं कि उपज बेचने की वही व्यवस्था ठीक थी, जिसमें इन दोनों का आधिपत्य रहता था। चूंकि आज एक नया चलन यह भी बन गया है कि सरकार के हर फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, इसलिए नागरिकता संशोधन कानून के मामले में भी करीब डेढ़ सौ याचिकाएं दाखिल कर दी गईं। अब कृषि विधेयकों के कानून का रूप लेते ही उनके भी खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं का ढेर लगना लगभग तय है। गौरतलब है कि इन प्रस्तावित कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की संभावनाएं तलाशने के लिए केरल सरकार ने अपने विधि विभाग को कह भी दिया है।
लोकतंत्र की रोज़ होती मौत
दलित-ब्राम्हण समीकरण के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले विपक्षी दल व कुछ मीडिया संस्थाओं के दूषित क्रिया-कलापों को देश के सामने लाना बेहद ज़रूरी हो गया है। आज ब्राम्हण विरोध की आड़ में हिंदुओं को अपमानित करना हो या हिंदुओं के एक वर्ग (दलितों) के मन में ब्राम्हणों के खिलाफ ज़हर भरकर उन्हें ईसाई मिशनरियों के जाल में फंसाकर ईसाई पंथ में शामिल करवा देना हो, ये सबकुछ बड़ी बेशर्मी के साथ हो रहा और वो भी बिना किसी डर के क्योंकि उन्हें मालूम चल चुका है कि इस देश के नागरिक खुद को हिंदुस्तानी कहने से पहले जाति, धर्म और मज़हब में विभाजित कर चुके हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इस देश में आज बीच चौराहे पे लोकतंत्र की मौत का तमाशा देखा जा रहा है। पहले इस देश में अंग्रेजों ने समाज में फूंट डालो और राज करो की नीति अपनाकर 200 सालों तक हमें गुलाम बनाए रखा और अब यही कार्य ऐसे विपक्षी राजनीतिक दल और मीडिया समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। मूर्ख वो नहीं, बल्कि मूर्ख तो हम हैं पर सवाल यही बनता है कि हम कबतक अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करते रहेंगे और वे कबतक हमें मूर्ख बने रहने का मीठा ज़हर देते रहेंगे?