भारत की राजनीति में जातियों का बहुत बड़ा महत्व है उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार दिल्ली तक जातिवाद की राजनीति की जाती है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और मायावती की सरकार इस बात का प्रतीक है कि किस तरह से उत्तर प्रदेश में यादव और मुस्लिम दलित और मुस्लिम का तुष्टीकरण करके सरकार बनाई जाती रही है। ठीक इसी प्रकार बिहार की राजनीति में होता है! 2015 के विधानसभा चुनाव में लोजपा, रालोसपा और हम तीनों पार्टियों ने मिलकर मात्र 5 सीट बचा पाई थी। अनुसूचित जाति की बड़ी आबादी होने के बावजूद बिहार में अनुसूचित जाति का कोई सर्वमान्य नेता नहीं बन सका। यानी बिहार में कोई काशीराम नहीं बन सका। रामविलास पासवान एक जाति के नेता बन कर रह गए। जीतन राम मांझी के पास एक बड़ा अवसर था उनके क्षेत्र की स्थिति ऐसी थी कि रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया को भाजपा के नेता गढवी महात्मा कहने लगे थे लेकिन मांझी जी ऐसे अफसरों को पहचान ही नहीं पाए।
1946 से 1977 तक बिहार में कुछ समय को छोड़कर सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री रहे थे। इस बात से समझा जा सकता है कि बिहार की राजनीति में सवर्णों का कितना बड़ा योगदान था। 1977 के बाद बिहार की राजनीति में सवर्ण समुदाय का वर्चस्व खत्म हुआ और जगन्नाथ मिश्रा बिहार के सवर्ण जाति से अंतिम मुख्यमंत्री बने। 1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक बिहार में पिछड़ी जाति और ओबीसी समुदाय के मुख्यमंत्री रहे।” नीतीश कुमार ने वर्तमान विधानसभा चुनाव को लेकर sc-st परिवार के किसी सदस्य की हत्या होने पर पीड़ित परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने का प्रावधान किया। इसके साथ-साथ इन सभी समस्याओं का निपटारा 20 सितंबर तक करने को कहा।”
वही तेजस्वी यादव ने इस घोषणा को गलत ठहराते हुए कहा, ” आदिवासियों पिछड़ों अति पिछड़ों व सवर्णों की हत्या पर उनके परिवार के सदस्य को क्यों नहीं नौकरी मिलनी चाहिए? क्या सवर्णों की जान की कोई कीमत नहीं है। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि हत्या ही नहीं हो ना कि इसके प्रमोशन का कानून बनाया जाए इससे तो बिहार में हत्या बढ़ती जाएगी।”
वहीं विपक्ष के विरोध पर सत्तारूढ़ एनडीए ने कहा था क, “इन्हीं के माता-पिता के शासनकाल में भूरा बाल, यानी ब्राह्मण राजपूत भूमिहार और कायस्थ को साफ करने को कहा गया था अब यह अपने पिता के पुरखों की विरासत से छेड़छाड़ करने में लगे हैं!”
यह सभी बातें सिद्ध करती है कि बिहार में आज भी जातिवाद का बोलबाला है। बिहार विधानसभा चुनाव आज भी केवल और केवल जातिवाद के आधार पर जीता जा सकता है। हालांकि बिहार में विकास की घोषणाओं को लेकर बहुत सारी बातें कही जाती हैं लेकिन अंतिम रूप यही समझा जाता है कि बिहार में विधानसभा चुनाव का विजेता वही बनता है जो बिहार की राजनीति में जातिवाद कर सके।