जब आज पूरा देश कोरोना महामारी की चपेट में आ रहा है तब कुछ महीनों पहले मुस्लिम समाज के एक छोटे समूह तब्लीगी जमात पर इस वायरस को फैलाने के आरोप लगे। इससे मुस्लिम समाज भी चिंतित हो गया। मुस्लिम समाज को एक कुशल नेतृत्व चाहिए, लेकिन अवांछित तत्वों ने मुस्लिम नेतृत्व हथिया लिया है। देखा जाए तो देश में मुस्लिमों में नेतृत्व को लेकर शुरू से ही विरोधाभास रहा है।1947 में भारत की आज़ादी के समय जो विभाजनकारी रेखा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खिंची, वह एक ऐसा ऐतिहासिक सत्य है जिसे अनदेखा या अनसुना नहीं किया जा सकता।
जिन मुसलमानों ने भारत में रहना स्वीकार किया, उन्हें हिंदू समाज ने अपनत्व दिया। वहीं, दूसरी ओर पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार आज भी जारी है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने मुस्लिमों के हित में कुछ न करके सिर्फ उन्हें आरएसएस या बीजेपी से डराकर ही रखा है।ऐसे में आज देश को एक बेहतर मुस्लिम नेतृत्व देखने की आशा है जो मुस्लिमों के बेहतर भविष्य की सोच तो रखता ही हो साथ ही हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का संवाहक भी बन सके।
खुद में सिमटता चला गया मुस्लिम समाज
आज से 60-70 वर्ष पहले मुस्लिम मित्रों के यहाँ जाना और उनका हमारे घरों में आना, खाना-पीना सब सामान्य दिनचर्या थी। जब संयुक्त परिवार कम हुए तो हिंदू-मुस्लिम परिवारों में भी आना-जाना कम हो गया। देखते-ही-देखते मुस्लिम समाज खुद में सिमटता चला गया। साथ ही उन मंचों का भी अभाव होता चला गया जहाँ हिंदू-मुस्लिम मिलन होता था और जहाँ गंगा-जमुनी संस्कृति फलती-फूलती थी। समय के साथ मुस्लिम समाज की एकाकी अस्मिता बलवती होती गई और वह मुख्यधारा से कटती चली गई।
इसे मुख्यतः दो प्रवृत्तियों ने और मज़बूत किया। एक स्वंतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने गाँधी जी की सलाह के विरुद्ध जाकर स्वयं को एक राजनीतिक पार्टी घोषित कर दिया और चुनावी स्पर्धा में मुस्लिमों को वोट-बैंक के रूप में देखने लगी। कांग्रेस ने मुसलमानों को आरएसएस और जनसंघ का भय दिखाकर और स्वयं को उनका हितैषी और सेकुलरिज्म का समर्थक बताकर उनकी अल्पसंख्यक अस्मिता को और मज़बूत किया। इसी से फिर अल्पसंख्यकवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण का विषबेल पनपता चला गया।
इससे मुस्लिमों में पीड़ित और वंचित होने का भाव जगा, जिसके चलते उनमें हिंदुओं के प्रति रोष उपजने लगाI कांग्रेस की देखा-देखी में और भी राजनीतिक दल मुसलमानों का हितैषी होने का स्वांग करते रहे और उन्हें हिंदुओं के साथ मुख्यधारा में आने से रोकते रहे। दूसरा कारण मुस्लिम नेतृत्व की विफलता रही। स्वतंत्रता के बाद से ही मुस्लिम समाज से कोई बेहतर नेतृत्व नहीं मिल सका और जो नेता निकले भी वो कांग्रेस की कृपा से।
मुस्लिम अस्मिता के नए प्रतीक
मुस्लिमों की नई पीढ़ी खुदको भारतीय मानती थी। बरेलवी हों या देवबंदी, वे भारत के प्राचीन इतिहास में अपने पूर्वजों को तलाशने का प्रयास किया करते थे लेकिन फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, उर्दू और मुस्लिम पर्सनल लॉ एक तरह से मुस्लिम अस्मिता के नए प्रतीक बन बैठे। 1971 के बांग्लादेश युद्ध से भी हिंदू-मुस्लिम के बीच दूरियां बढ़ीं। आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गाँधी ने आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी के नेताओं को जेलों में बंद किया तो दोनों समुदायों के पास आने की आस जगी।
संपूर्ण क्रांति के महानायक जयप्रकाश बाबू के सुझाव पर आरएसएस ने मुसलमानों के लिए अपने द्वार खोलने का आश्वासन भी दिया पर 1979-80 में ईरान में अयातुल्ला खोमैनी की क्रांति से भारत में इस्लामिक उफान सा आ गया। कश्मीर तो हमेशा सांप्रदायिक सौहार्द में विभाजक तत्व रहा। वहीं, अन्य मुद्दे जैसे शाहबानो, राममंदिर, गोधरा कांड और गुजरात दंगे भी उसे हवा देते रहेI 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने से भी हालात बदले।
तुष्टिकरण की राजनीति
अपवादों को छोड़, मुस्लिम विद्वान अपने मुस्लिम केंद्रित अध्ययन-शोध में लीन रहकर केवल यही सिद्ध करते रहे कि इस देश के मुसलमान उपेक्षित और असुरक्षित हैं। सांप्रदायिक दंगों में वो मुस्लिमों के प्रति पुलिस की सख्ती ही रेखांकित करते रहे लेकिन यह सत्य छिपाते रहे कि पुलिस को ऐसा करना ही क्यों पड़ता है? आज के अधिकतर दल राजनीतिक लाभ के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण का अनवरत प्रयास करते ही रहते हैं और वहीं हिंदुओं की असुरक्षा और संवेदनाओं की घोर उपेक्षा करते हैं।
हैरानी की बात तो ये है कि मुस्लिम विद्वान भी मुसलमानों को ये नहीं समझा सके कि उनका भी हिंदुओं के प्रति कुछ फर्ज़ बनता है और गंगा-जमुनी तहज़ीब बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उनकी भी उतनी ही है जितनी हिंदुओं की है। मुस्लिम विश्वविद्यालय भी हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के संवाहक नहीं बन सके, जबकि हिंदू-मुस्लिम विद्वानों में एक-दूसरे के प्रति बेहद आत्मीयता है। इसी की आड़ लेकर कट्टरपंथी धर्मगुरुओं ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों से नेतृत्व छीन लिया।
कट्टरपंथी धर्मगुरु ‘पैन-इस्लामिज्म’ को लक्ष्य करते हैं इसीलिए उनकी तकरीरों में मुस्लिम अस्मिता को तो मज़बूत करने की मांग रहती है पर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न नहीं दिखता। इसी के चलते तब्लीगी जमात के मौलाना साद जैसे तत्व मुसलमानों को शर्मसार करते हैं और सूफी किस्म के धर्मगुरुओं के सांप्रदायिक सौहार्द के प्रयासों पर पानी फेरते हैं।
समय की मांग है एक बेहतर मुस्लिम नेतृत्व की
राजनीति में अपराधियों के बढ़ते प्रभाव और मुस्लिमों को वोट-बैंक की तरह देखने के कारण दलों ने स्थानीय स्तर पर मुस्लिमों का राजनीतिक नेतृत्व हथियाने के लिए आपराधिक किस्म के लोगों को प्रोत्साहित किया है। इस प्रकार राजनीतिक, बौद्धिक, धार्मिक और सामाजिक मुस्लिम नेतृत्व के अभाव ने न केवल मुस्लिम अस्मिता, बल्कि सांप्रदायिक विद्वेष और राष्ट्र-विरोध को मज़बूत ही किया है। 1961 में जबलपुर और 1964 में जमशेदपुर और राउरकेला में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए।
वहीं, 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद अब्दुल हमीद को मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान परमवीर चक्र दिया गया तो पुनः मुस्लिमों के मुख्यधारा में आने की आशा जगी, लेकिन दुर्भाग्यवश अनेक मुस्लिम नेता वैसा रवैया न अख्तियार कर सके जैसे समय की मांग थी। काश मुस्लिम नेतृत्व की कोई ऐसी धारा फूटती जो मुसलमानों को देश की मुख्यधारा, गंगा-जमुनी संस्कृति और सांप्रदायिक सौहार्द की ओर ले जाती जिससे फिर उन्हें कोई गोधरा कांड का आधा सच न बता सके, आरएसएस और बीजेपी का खौफ न पैदा करवा पाए व शरणार्थियों के लिए लाए गए सीएए जैसे कानून का गलत मतलब बतलाकर देश का अमन-चैन न खराब करवा पाए।