कोरोना वायरस को रोकने के लिए लॉकडाउन एक असरदार उपाय है। भारत सरकार द्वारा इस उपाय को शुरुआत में ही अपना लिया गया था जिसके परिणामस्वरूप यहाँ इतनी संख्या में लोग कोरोना संक्रमित नहीं हुए जितने बाकी देशों में देखने को मिल रहे। इस लॉकडाउन में मिले हुए समय का सरकार ने सही उपयोग किया और कठिन वक्त के लिए कई बेड वाले अस्पतालों से लेकर आइसीयू और वेंटीलेटर्स तक सब तैयार कर लिए।
लॉकडाउन के बीच कामगारों की मजबूरी
मार्च के आखिरी सप्ताह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन शुरू होते ही कामगारों का अपने घरों की तरफ लौटना शुरू हो चुका था जो अब लॉकडाउन के चौथे चरण में भी जारी है। इसकी मुख्य वजह उनका रोजी-रोटी की चिंता करना है। जहाँ वे कार्य कर रहे थे वहां उन्हें तनख्वाह मिलनी बंद हो गई थी। केंद्र सरकार व राज्य सरकारों ने उन्हें शहरों से पलायन न करने की हिदायत भी दी थी व उन्हें हर संभव सहायता उपलब्ध करवाने का भी भरोसा जताया था पर फिर भी कामगारों द्वारा ये पलायन जारी रहा। अंततः केंद्र सरकार ने घर लौटने के इच्छुक कामगारों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने का फैसला किया, लेकिन ट्रेनों की सीमित संख्या और कामगारों की भारी संख्या के चलते बहुत से कामगारों को ट्रेनों में जाने का मौका नहीं मिल पा रहा। ऐसे में वे अपने घरों की तरफ साइकिल से और कुछ तो पैदल ही चल पड़े हैं। सवाल तो राज्य सरकारों से करना चाहिए कि आखिर उनके सामने ही कामगार पैदल अपने घर जाने को क्यों मजबूर हैं? क्या राज्य सरकारों के लिए ये इतना कठिन कार्य है कि पैदल जा रहे कामगारों को वे उन्हें अपने गंतव्य तक नहीं पहुंचा पा रहे? सरकारों के ऐसे रवैए के कारण कामगारों का मन जैसे उचट ही गया होगा व इससे अब इंकार भी नहीं किया जा सकता कि वे शायद अब वापिस शहर भी न लौटें। अगर ऐसा होता है तो आने वाले समय में कारखानों में कामगारों की कमी एक विकट समस्या बन जाएगी।
20 लाख करोड़ रूपए का आर्थिक पैकेज
लॉकडाउन के कारण ठप पड़ी देश की अर्थव्यवस्था को फिर से जीवनदान देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जीडीपी के 10 फीसद की प्रभावी वित्तीय मदद मुहैया कराई गई। प्रधानमंत्री द्वारा 20 लाख करोड़ रूपए (20 lakh crore) के राहत पैकेज के अतिरिक्त भारत को आत्मनिर्भर बनाने की भी बात कही गई। इस आर्थिक पैकेज को प्रोत्साहन पैकेज भी माना जा रहा है पर उसमें नीतिगत घोषणाएं ज्यादा हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूदा वक्त में बाज़ार में तरलता बढ़ाने व कर्ज़ लेने को आसान बनाने के उपाय सफल होते नहीं लग रहेI MSME की बात करें तो इससे जुड़े तकरीबन 12 करोड़ लोगों को 3 लाख करोड़ रूपए का पैकेज दिया गया है। सरकार द्वारा नए दिशानिर्देशों के अनुसार, इससे जुड़े लोग अब बिना गारंटी कर्ज ले सकेंगे, लेकिन क्या इस मंदी के वक्त इन व्यवसायों से जुड़े लोग कर्ज लेना चाहेंगे? आर्थिक पैकेज की कई घोषणाएं सीधे राहत पहुंचाने वाली नहीं दिखतीं जिनकी फिलहाल ज़रूरत है बल्कि ऐसे सुधारों से संबंधित हैं जिनका फायदा भविष्य में दिखाई दे सकता है। वर्तमान की आवश्यकता ऐसे उपायों की है जो
ज़रुरतमंदों को जैसे किसानों, कामगारों एवं कारोबारियों को सीधे राहत पहुंचाए।
आखिर सरकारी लालफीताशाही कब होगी समाप्त?
MSME जिसे वर्षों से सुधार की आवश्यकता थी वो अब कोरोना काल में दुरुस्त हुई। ऐसे अधिनियमों को संशोधित करने का कार्य पहले भी किया जा सकता था क्योंकि ऐसे सुधारों की मांग एक अर्से से की जा रही थी। समय पर आवश्यक सुधार न करने पर समस्याएं और बढ़ती ही हैं। इसी तरह बिजली वितरण कंपनियों को जो 90 हज़ार करोड़ रूपए की आर्थिक मदद दी गई उससे ये समझना कठिन है कि ये राशि उन्हें उनके पुराने घाटे की भरपाई के लिए दी गई है या फिर लॉकडाउन के दौरान बिजली बिलों की वसूली न होने से जो घाटा हुआ उसकी एवज में उन्हें ये रकम दी गई। मोदी सरकार द्वारा कामगारों, किसानों एवं कारोबारियों को जो इस आर्थिक पैकेज के ज़रिए राहत देने की कोशिश की गई उनसे सुधार होने का रास्ता तो खुलना ही चाहिए। हालांकि, आर्थिक-व्यापारिक माहौल सुधरने के बाद ही इस निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकेगा कि ये आर्थिक पैकेज वास्तव में हितकारी साबित हुआ है या नहीं।
लॉकडाउन के कारण रसातल में चल रहे भारत के कारोबार जगत का मनोबल अवश्य ही इन किए जा रहे प्रयासों से बढ़ा होगा पर अब नीति-निर्माताओं को इन्हें ज़मीन पर लागू करवाने में कोई कोर-कसर नहीं बाकी रखनी चाहिएI भारत की सत्ता भले ही अंग्रेजों से छिन गई हो पर अभी भी सरकारी बाबुओं की लालफीताशाही जस-की-तस है।
देश के नौकरशाह वही पुराने तौर-तरीकों एवं जटिल कार्यशैली के आदि हैं जिन्हें बरसों पहले ही त्याग देना चाहिए थाI ऐसे में आज समय के साथ उनकी भी मानसिकता बदलने की ज़रूरत है जिससे आम आदमी को अपना कार्य करवाने में पसीना न छूटे। इन सुधारों की आवश्यकता आज और भी अधिक ज़रूरी इसलिए भी हो गई है क्योंकि कोरोना वायरस की ये स्थिति अभी काफी लंबी चलने वाली है।
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर तालमेल का होना भी बेहद ज़रूरी है जिससे एक देश-एक राशन कार्ड जैसी योजनाओं का लाभ गरीबों तक पहुंचाया जा सके। ऐसा इसलिए क्योंकि कामगारों की वापसी के मामले में केंद्र व राज्य सरकारों के बीच फिलहाल बेहतर समन्वय नहीं दिखाई दे रहा जो काफी चिंताजनक है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने का समय
गाँव अभी भी कोरोना वायरस की चपेट में नहीं आए हैं जो भारत के लिए राहत की बात है। वहीं, गाँव अब बेरोज़गारी की समस्या का भी समाधान करने को तैयार हैं। लाखों लोगों द्वारा शहरों से अपने गाँव, अपने घरों तक पहुँचने के बाद से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक नई ऊंचाई देने के बात कही जा रही है।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 20 लाख करोड़ रूपए (20 Lakh Crore) के आर्थिक पैकेज में से गाँवों की सूरत हमेशा के लिए बदलने के लिए कई रियायतें दीं गईं हैं। प्राचीन समय में हमारे गाँव स्वावलंबी हुआ करते थे। जैसे-जैसे हम आधुनिकता के जाल में फंसते गए वैसे-वैसे हम अपने गाँवों को भूल ही गए और शहरों की तरफ काम की तलाश में निकल पड़े। अब जब कोरोना वायरस की वजह से जारी किए गए लॉकडाउन के कारण लाखों लोगों द्वारा शहरों से अपने गाँव आना हुआ है तबसे ये उम्मीद बढ़ गई है कि शायद अब गाँवों के भी अच्छे दिन आएंगे।
इसमें मनरेगा योजना मील का पत्थर साबित हो सकती है जिससे गरीब लोगों को मजदूरी करने के लिए अपना गाँव नहीं छोड़ना पड़ेगा। अच्छी बात ये है कि इस योजना के तहत अब मजदूरों को उनकी मजदूरी के एवज में 202 रूपए दिए जाएंगे। सरकार को मनरेगा के कार्य को आधुनिक रूप भी देना चाहिए व कृषि में टेक्नोलॉजी विकसित करने पर भी जोर देना चाहिए। अब किसानों को उन्नतशील व जैविक खेती करने के लिए भी सरकार द्वारा उन्हें प्रोत्साहन देना होगा। साथ ही छोटे-बड़े उद्योगों को गाँव में लाना होगा जिससे भारत का ग्रामीण क्षेत्र विकसित हो सके।
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